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प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ यह विशेष केन्द्र रहा है और अन्य प्रान्तों ने इसे खड़ा करने में पूर्ण सहयोग दिया है। सच तो यह है कि 'आत्म' व 'वल्लभ' ही ऐसी दिव्य अात्माएँ हैं जिन्होंने पंजाब श्रीसंघ की पिछली तीन पीढियों को बताया कि जैन धर्म का गौरवपूर्ण इतिहास कुछ अागमों तक ही सीमित नहीं है। भव्य मूर्तियां, ध्यानावस्थित प्रतिमाएँ, शिखबद्ध मन्दिर, महान् परम पवित्र तीर्थ, भग्नावशेष, टीकाएँ, भाष्य, चूर्णि श्रादि भी इस के कीर्ति कलेवर का यशोगान करते हैं। पंजाब श्रीसंघ इनका विशेष उपकार मानता है। जब हम जैनधर्मरूपी महान् सागर के तट पर बिखरी हुई कोडियों को रत्न समझ रहे थे, इन्होंने उस क्षीरसागर का मन्थन कर हमें अमृत या नवनीत का दर्शन कराया। यह है उनके महान् कार्य का दिग्दर्शन किंवा महत्त्व ।
उपसंहार
मैं समझता हूं कि यदि हमारी संस्कृति के अन्य प्रतीक व चिह्न अनुपलब्ध भी रहते, तो भी गुरु वल्लभ जैसे 'महासमण भिक्खु' उस महत्त्वपूर्ण व लोकोपकारी सर्वोदय सिद्धांत पर आश्रित संस्कृति का जीवित परिचय देने के लिए पर्याप्त थे। जिस व्यक्ति का अपना कोई स्वार्थ नहीं, चाह नहीं, परमार्थ ही महान् स्वार्थ है और जो साधुत्व के नियमों का पालन करता हुअा भी समाजकल्याणकारी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने के लिए जीवन भर कटिबद्ध रहा, उसके प्रति कौन सहृदय व्यक्ति नतमस्तक न होगा? उन में ज्ञानी का मस्तिष्क था, कवि का हृदय था और निष्काम कर्मयोगी की क्रियाशक्ति थी। उन्होंने सभी कार्य नीति नहीं, धर्म व कर्तव्य समझ कर पूरी निष्ठा से किए। संस्कृत के एक कवि ने कहा है :...
__'वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः ॥' जब ऐसे महात्मा विश्ववन्द्य हैं तो उनके उपकृत व्यक्ति या समाज उनका जितना सन्मान करें, थोड़ा है। वे उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकते और न ही उनके अाकाशसमान अनन्त गणों का सीमित से वर्णन कर सकते हैं। यह प्रयास केवल उन के व्यक्तित्व की एक झांकी दिखाने के लिए 'पत्रं पुष्पं फलं तोयम्' की भांति अत्यन्त लघु है। हमें उन का श्रादर्श जीवन प्रगतिपथ पर दृढप्रतिज्ञ हो अग्रसर करता रहे, इसी हेतु यह प्रयत्न किया गया है!
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