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प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ कर इन्हें भयभीत करती थीं, परन्तु स्वर्गीय गुरुदेव की आशीर्वाद और उन के मिशन की पूर्ति की निष्ठा के सन्मुख ठहर न पाती थीं। वृद्धावस्था को भी पराजित कर आप अपने मार्ग पर हद रहे। वि० सं० २०११ में बम्बई में नवकार का जाप करते हुए श्राप ने इस भौतिक देह का त्याग कर अमरत्व की प्राप्ति की और भावी पीढ़ी के लिए अपनी अनथक सेवाओं का प्रतीक यश कीर्ति का धवल शरीर छोड़ गए।
आप की श्मशान यात्रा का दृश्य बम्बई नगर के इतिहास में अपना अनुपम स्थान सुरक्षित रख गया है। सारी जनता ने उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित की, लाखों की संख्या में लोग जलूस में सम्मिलित हुए, धन की मानो वर्षा हुई, पुलिस के सिपाही गुलाल से रंजित हो गए, सभी दलों, संस्थाओं और नेताओं ने शोक सभा में भाग लेकर श्रद्धा के पुष्प अर्पित किए और सागर समान अपार जनसमूह अाकाश में सूर्य के निकट सप्तवर्ण वर्तुल को देखकर विस्मय-मुग्ध हो गया। उन का समस्त जीवन अनवरत मानव सेवा का जीवन है, अतः उन के चरित्र की विशेषताओं और कार्यों का यहां सिंहावलोकन करना
आवश्यक है। चरित्र की विशेषताएँ
प्राचार्य श्री विजयवल्लभ में नम्रता, त्याग और अनासक्ति भाव की पराकाष्ठा थी। अपने नाम अथवा मान का मोह उनका स्पर्श भी न कर सका था। उन्होंने जितनी भी संस्थाएँ स्थापित की, अथवा ज्ञानभंडारों की स्थापना करवाई, उन सब में भगवान् अथवा गुरुदेव के नाम को ही अमर किया। उनकी नम्रता और स्वमान तथा प्रतिष्ठा की भावना के अभाव का इस से बढ़ कर प्रमाण क्या हो सकता है कि बड़ौदा व फालना में श्रीसंघ एक स्वर से उन्हें 'शासनसम्राट' की पदवी देने के लिए उत्सुक है और वे महात्मा ८० वर्ष की आयु में इस पद के सर्वविध योग्य होते हुए भी संघ से विनम्र विनती करते हैं कि "मुझे पद नहीं, काम दो।"
ई० सन् १९४४ में आपका चतुर्मास बीकानेर में था। उन दिनों वहां भगवान् की रथयात्रा का मार्ग गच्छों के संकुचित क्षेत्रों में विभाजित था और कभी कभी हिन्दुओं के मन्दिर की आरती व मुसलमानों की मसजिद के सामने बाजा बजाने की समस्या के समान कलहक्लेश का भी कारण बन सकता था। आपने इस 'गवाड़ बन्दी' को बन्द करने का बीड़ा उठाया। आपके सामने एक प्रस्ताव यह रखा गया कि आपकी उपस्थिति में रथ यात्रा सभी गवाड़ों में घूम सकेगी, परन्तु हमेशा के लिए अाग्रह मत कीजिए। आपने तत्काल उत्तर दिया, 'मेरी उपस्थिति में आप चाहे पुरानी परंपरा पर ही स्थिर रहें, परन्तु मेरे जाने के बाद हमेशा के लिए भगवान् की रथयात्रा का मार्ग निर्बाध स्वीकार कर लीजिए'। प्रतिष्ठा के मोह का ऐसा अभाव बहुत कम देखने में आता है। आपकी सच्ची शासनसेवा की भावना रंग लाई और 'गवाड़ बन्दी' हमेशा के लिए बन्द हो गई। आप की अन्तर्भावना सदैव यही रहती थी कि गुरु के नाम व स्मृति में अपना व्यक्तित्व समा जाए।
- प्रज्ञाचक्षु, दिग्गज विद्वान् पं० सुखलालजी ने एक स्थान पर कहा है कि 'पंथ में यदि धर्म का जीवन हो तो हज़ार पंथ भी बुरे नहीं।" जो लोग गुरु वल्लभ को एक पंथ या गच्छविशेष का ही गुरु मानते हैं, वे इस तथ्य से इनकार नहीं कर सकते कि उनमें सांप्रदायिक संकुचित वृत्ति का अभाव था। वे अपनी मान्यताओं पर सम्यक् विश्वास रखते थे, उनका प्रचार भी करते थे, परन्तु उन में विद्वेष की भावना नहीं थी। जैन धर्म के स्यावाद व महात्मा गांधी के नवीन समन्वयवाद से वे प्रभावित थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक स्थानकवासी व अजैन छात्रों की भी सहायता की है, खिलाफ़त आन्दोलन व हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए भी उन्होंने आर्थिक सहायता दिलवाई थी। दिगम्बर जैन मन्दिरों में भी वे श्रद्धापूर्वक
१. बीकानेर में मुहल्ल या स्ट्रीट को गवाद' कहते हैं।
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