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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ 20800-2000285900000 जिस प्रवृत्ति के मूल में राग, द्वेष तथा मोह की वृत्ति है, वस्तुतः वही प्रवृत्ति क्रिया है, जो कर्म बन्धन की हेतु होती है । ' जो प्रवृत्ति अनासक्त भाव से की जाती है, संसार को अनित्य समझ कर उदासीन भाव से की जाती है, जिस के मूल में आवश्यकता पूर्ति हेतु केवल कर्तव्य कर्म की ही निर्मल बुद्धि है, अन्य कोई भी रागद्वेषात्मिका मलिन बुद्धि नहीं है, वह प्रवृत्ति होते हुए भी अप्रवृत्ति है, क्रिया होते हुए भी अक्रिया है। इस प्रकार बाहर होने वाली क्रियाओं में कर्मबन्ध की शक्ति का अभाव होता है। यदि क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ कर्म बन्ध होता भी है तो वह क्षणिक होता है। ऐसा क्षणिक कि उसे कर्म या कर्मबन्ध कहना, केवल शास्त्रीय भाषा है और कुछ नहीं। जिस कर्म में न कोई स्थिति हो और न कोई फल प्रदानरूप रस ही हो, वह कर्म ही क्या। साधारण स्थिति में यदि बीज का वपन किया जाये तो अंकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार राग, द्वेष तथा मोह से प्रेरित होकर यदि क्रिया अर्थात प्रवृत्ति करता है तो उससे कर्मबन्ध होता है, और उस कर्मबन्ध के फलभोग के लिये पुनर्जन्म होता है। किन्तु अनासक्त भाव से विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने से न कर्मबन्ध होता है, न उसके फलभोग के लिये पुनर्जन्म । जव कर्म ही नहीं तो उसका फल कैसा । मूलं नास्ति कुतः शाखा । जब कोई साधक वीतराग हो जाता है, अर्हन्त स्थिति प्राप्त कर लेता है तो वह शताधिक वषों जीवित रहकर गमना-गमनादि तथा धर्मदेशना आदि की उचित प्रवृत्ति करता है, निष्काम भाव से पूर्ववश सुख-दुख आदि के कर्मफलों को भोगता रहता है, किन्तु नवीन कर्म से बद्ध नहीं होता। इसी दार्शनिक चिन्तन को लक्ष्य में रखकर अर्हन्त तीर्थकरों के लिये "जिणाणं जावयाणं, तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं " आदि कल्याणकारिता के द्योतक महत्वपूर्ण विशेषण, का प्रयोग किया गया है। यह जीवन जीने की प्रक्रिया जल में कमल के रहने की प्रक्रिया है, जो भारतीय जीवन पद्धति का एक आदर्श सूत्र है।' १ पमायं कम्म माहंसु मोक्षः । तत्वार्थसूत्र १०/३ २ यहा दडढाणं वीयाणं न जायंति पुण अंकुरा । कम्म-वीर्यसु दडढेसु ण जायंति भवंकुरा ।। दसासु ०५/१५ ३ जयं चरे जयं विटठे जयमासे जयं सए। जयं भुजन्तो मासन्तो पावं न बंधई।। दसवे ०४/५ ४ न लिप्पई भवगज्झे वि सन्तो अजेण वा पोक्खविणीपलासं ।। उत्त ०३२/४७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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