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________________ क्रिया कोश अतः जैन दर्शन ने जितने विस्तार से कर्मों का वर्णन किया है, उतने ही विस्तार से क्रियाओं का भी वर्णन किया है। कर्म के शुभाशुभ विकल्पों को, विभिन्न प्रकारों को समझने के लिये क्रियाओं के स्वरूप का विस्तार से परिज्ञान होना आवश्यक है। आगम साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग क्रियाओं की चर्चा से परिव्याप्त है। कहीं संक्षेप शैली में चर्चा है तो कहीं विस्तार शैली में। कहीं व्यवहार दृष्टि से निरूपण है तो कहीं निश्चय दृष्टि से। कहीं-कहीं तो इतनी अधिक सूक्ष्म चर्चाएं हैं कि उनके वास्तविक मर्म को समझने के लिये काफी दूर तक चिन्तन की गहराई में उतरना पड़ता है और यह चिन्तन की गहराई ही साधक के लिये साधना का पथ प्रशस्त करती है। व्यक्ति की जैसी क्रिया होगी, उसी के अनुसार उसका कर्म भी होगा। और जैसा कर्म होगा, वैसा ही उसका फल होगा। यदि कोई कर्म के फल से बचना चाहता है तो उसे कर्मबन्ध से बचना होगा। और जो कर्मबन्ध से बचना चाहता है, उसे कर्मबन्ध करने वाली क्रियाओं से बचना होगा। मूल में क्रिया है और शेष सब उसी का विस्तार है। धर्मसाधना क्रियाओं का निरोध है, और कुछ नहीं यह निरोध ही संवर है,' जो जैन साधना का महानतम मुक्तिपथ है। क्रियाओं के निरोध से क्या अभिप्राय है। यह यहा समझ लेना आवश्यक है । क्रिया का यह अर्थ नहीं कि साधक निष्क्रिय होकर बैठ जायेगा, वह कोई भी प्रवृत्ति नहीं करेगा। साधना का अर्थ शून्यता नहीं है और न मनुष्य जीवनकाल में इस प्रकार शून्य, निर्जीव एवं निश्चेष्ट ही हो सकता है। जब तक जीवन है प्रवृत्तिचक्र चलता ही रहेगा। एक क्षण के लिए भी व्यक्ति निश्चेष्ट नहीं रह सकता। जब जीवन की यह स्थिति है तब प्रश्न उपस्थित होता है कि साधन-पथ में क्रिया का निरोध कैसा। जब क्रिया का निरोध नहीं तो कर्म बन्धन से छुटकारा नहीं और जब कर्मबन्धन से छुटकारा नहीं तो फिर मुक्ति कैसे होगी। कर्मबन्धन से मुक्ति ही तो मुक्ति है । ३ उक्त प्रश्न का समाधान है कि यहां क्रिया से बाहर शरीर, इन्द्रिय आदि द्वारा होने वाले स्थूल प्रवृत्ति एवं चेष्टा ही अभिप्रेत नहीं है। यहां क्रिया से अभिप्राय है व्यक्ति के अन्दर की मनोवैज्ञानिक स्थिति, भावात्मक वृत्ति । १ आस्रवनिरोधः संवरा । - तत्वार्थसूत्र ६/१ २ न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तित्यकर्मकृत । भगवतगीता ३/५ ३ कृत्स्नकर्मक्षयोः मोक्षः। तत्वार्थसूत्र १०/३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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