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________________ स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ धर्म को नहीं मानते वे सामाजिक या नागरिक जीवन की अनिवार्यता अथवा अपनी अन्तरात्मा काम्प्लेक्स से सदाचार की प्रेरणा लेते हैं। वास्तव में नैतिक नियम यद्यपि वे वैयक्तिक संस्कारों एवं परिवेश से भी प्रभावित होते हैं, प्रायः एक निष्पाप, सरल हृदय, कर्तव्यचेता मनुष्य के सहज स्वभाव के अनुरूप होते हैं, और इसीलिये वे धर्म का अंग या व्यावहारिक रूप मान्य किये जाने लगे। उनके सम्यक आचरण से मनुष्य का आत्मविकास, अथवा उसके व्यक्तित्व का विकास होता ही है। इस दृष्टि से थामसफुलर की वह उक्ति सत्य ही है कि 'सम्यक जीवन ही एकमात्र धर्म है।" नैतिकता का आधार ही धर्म है। प्रत्येक धर्म हिंसा, झूठ-चोरी-कुशील शोषण आदि पापों का निषेध करता है। धर्म ही मनुष्य में सदगुणों का चयन एवं पोषण करता है, धर्म को आधार बनाकर ही पुण्याचरण किया जा सकता है। धर्म तो प्रत्येक व्यक्ति में अन्तर्निहित उस उर्जा की अनुभूति, उपलब्धि एवं अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त साधन है, जो कि उसका जन्मसिद्ध अधिकार एवं निजी स्वभाव है और जो चरित्र निर्माण, समस्त अच्छाइयों और महानताओं के विकाश तथा दूसरों को शान्ति प्रदान करने में प्रस्फुटित होती है। धर्म मात्र नैतिकता या सदाचरण नहीं है। वह तो आत्म- विकाश की प्रक्रिया है, जीवग्नोनयन है, समग्र जीवन का दिव्यीकरण है, स्व स्वरूप का उदघाटन एवं आविष्कार है, वाहय एवं आभ्यन्तरिक उत्थान का साधक है और नितान्त वैयक्तिक है। श्रमण तीर्थकरों की अत्यन्त प्राचीन जैन परम्परा में "धर्म" की जो परिभाषा-“वस्युसुहाओ धम्मो” अर्थात वस्तु स्वभाव का नाम धर्म है , दी गई है वह सर्वथा मौलिक है और धर्मतत्व के यथार्थ स्वरूप की द्योतक है। जो जिस चीज का सर्वथा परानपेक्ष निजी गुण है, और उसका जो परानपेक्ष स्वभाव है, वही आत्म धर्म है। उक्त स्वरूप या स्वभाव की उपलब्धि का जो मार्ग या साधन है, वह व्यवहार धर्म है। सम्पूर्ण विश्व का विश्लेषण करने से उसके दो प्रधान उपादान प्राप्त होते हैं - जीव और अजीव । संसार में जितने भी जीव या प्राणी हैं, क्षुद्राविक्षुद्र जीवाणुओं, जीव-जन्तुओं से लेकर अत्यन्त विकसित मनुष्य पर्यन्त, उनमें से प्रत्येक की अपनी पृथक एवं आत्म विकास की निम्नतम अवस्थाओं से लेकर चरमतम अवस्थाओं में स्थित है। अपनी मौलिक शक्तियों, क्षमताओं एवं स्वभाव की दृष्टि से वे सब समान हैं, किन्तु भिन्न भिन्न आत्माओं में उक्त शक्तियों, क्षमताओं और स्वाभाविक गुणों की अभिव्यक्ति भिन्न भिन्न है । यह अभिव्यक्ति सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्री जीव में निम्नतम है और सिद्व भगवान अथवा संसार से मुक्त हुए परमात्व Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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