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________________ त्वीका आध्यात्मिक विकास उपज है । धर्म को वाह आडम्बर से नहीं जोड़ना चाहिए, वरन उसे आत्मा की उपलब्धियों की दृष्टि से आंकना चाहिये । वह जनसाधारण की अफीम नहीं, वरन प्रेरणा का स्रोत है।"एक अन्य विद्वान के शब्दों में धर्म एक कल्पबेली है - उसके आसपास मनगढ़ंत बातों के कैक्टस मत उगाओ। ओर डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, धर्म उस अग्नि की, जो प्रत्येक व्यक्ति के भी जलती है, ज्वाला को प्रज्वलित करने में सहायता देता है। धर्म का प्रयोजन लोगों का मन बदलना नहीं, जीवन बदलना है। धर्म, जाति, वर्ण, और अहम भाव को जन्म नहीं देता, वह तो मानव मन को आन्तरिक और उदात सम्भावनाओं के बीच सेतुबंध का कार्य करता है। किन्तु जो स्वयं रिक्त हैं अर्थात भौतिकता में डूबे हुए हैं, उन्हें इस गूढ़ पद का आभास ही नहीं हो पाता। उनके सामने तो ऍहिकता के इन्द्रजाल बिखरे होते हैं और उन्हीं में जीना उनका अभीष्ट होता जो लोग स्वयं को भौतिकवादी, विज्ञानवादी या घोर नास्तिक कहते हैं और धर्म के नाम से भी चिढ़ते हैं, वे भी कतिपय नैतिक नियमों और सदाचरण में तो विश्वास करते हैं। मनुष्य स्वभावतः एक सामाजिक प्राणी है । वह एकाकी रह ही नहीं सकता - सदैव से मनुष्यों के साथ रहता आया है। परिवार, कुल, आदि कबीलों से लेकर वर्ण, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, समाज,राष्ट,वसुधैव कुटुम्बकम तक का विकासक्रम उसकी सामाजिकता का ही प्रतिफल है। जब एक व्यक्ति परिवार, कबीले, जाति अथवा किसी भी समाज का अंग होकर रहता है तो उसे अपनी स्वेच्छाचारिता को सीमित करना पड़ता है, अपने स्वार्थों का कुछ त्याग करना पड़ता है और उक्त समाज के दूसरे सदस्यों का भी ख्याल रखना पड़ता हैं। स्वर पर हित की दृष्टि से इन पारस्परिक सम्बन्धों में व्यवस्था, सहकारिता, सहयोग एवं सह अस्तित्व अभीष्ट होते हैं । एतदर्थ कुछ नियमोपनियम बनाने पड़ते हैं, जो नैतिकता कहलाते हैं और जिनका पालन प्रत्येक व्यक्ति के लिए वांछनीय ही नहीं, आवश्यक भी होता है। अनैतिकता का परिणाम अव्यवस्था, अराजकता और अशान्ति होते हैं । बहुधा स्वार्थपरता, महत्वाकांक्षा, ईर्ष्या, द्वेष, धृणा,क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनुष्य की नैतिक नियमों की अवहेलना करने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसी स्थिति में समाज भय, लोक भय, राजदण्ड का भय आदि उसकी उच्छृखल प्रवृत्ति पर अंकुश का काम करते हैं। क्योंकि इन नैतिक नियमों को प्रचलित धर्म की भी स्वीकृति प्राप्त होती है, धर्मभय, ईश्वरीय कोप का भय भी उक्त नियमों के पालन करने में प्रेरक और सहायक होते हैं । जो Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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