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________________ - दर्शन-दिग्दर्शन है और उसे शुद्ध व स्वतः प्रमाण सिद्ध माना है। धर्म से कर्म का बोध होता है और चोदना इसे जानने का साधन है। अतः चोदना भी क्रिया को बताने वाला या निर्देश करने वाला होना चाहिए। वेद राशि के पांच भाग विधि, निषेध, अर्थवाद, मंत्र, नाम धेम में अंतिम तीन क्रियार्थ नहीं हैं, पर जैमिनी ने इनको भी क्रिया माना है। धर्म के ज्ञान के लिए स्मृति और शिष्टाचार श्रुति पर आधारित होने से परोक्ष रूप से प्रमाण हैं, पर जैमिनी ने इन पर विचार न कर मात्र प्रत्यक्ष की व्याख्या ही की है क्योंकि उनके विचार में लौकिक पदाथों का ज्ञान, धर्म के ज्ञान की कोटि में नहीं आता। मीमांसा सूत्र में दो से छ: अध्यायों में क्रमशः कर्मभेद, शेषत्व (मुख्य व पूरक के बीच संबंध) प्रयुक्त (कृत्वार्थ या पुरूषार्थ) क्रम (पूर्व पश्चात कर्म का विधान) और अधिकार (कर्ता के गुण) का विवेचन है। आगे के दो अध्यायों में अतिदेश व उसके दो भेद सामान्य व विषय पर समीक्षा की गई है। अंतिम चार अध्यायों में ऊह (रूपांतर) बाघ तथा समुच्चय (अंश का लोप अथवा संयोग) तंत्र, अबाप (पूरक कर्म) प्रसंग और विकल्प पर विचार किया गया है। संघर्ष काण्ड के चार अध्यायों में मंत्र, प्रेष, निग्रह, वषटकार आदि विषयों के साथ अग्नि, इष्टका, मूप आदि का भी विवेचन है। मीमांसा सूत्र के प्रतिपाद्य विषयों की जानकारी हेतु उसकी वास्तविक शिक्षाओं को तीन दृष्टिकोणो से देखा जा सकता है - यज्ञशास्त्र, व्याख्या शास्त्र और दर्शन शास्त्र । इसमें यज्ञ संबंधी शिक्षाओं को मुख्यतः ब्राह्मण ग्रंथों की शुद्ध व्याख्या के रूप में उसी तरह देखा जा सकता है जिस तरह उपनिषदों की शुद्ध व्याख्या वेदान्त में मिलती है और इसीलिए इन कृतियों व दर्शनों को क्रमश पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा का नाम दिया गया है। यज्ञ कर्म प्रधान (इच्छित फल की प्राप्ति) और अंगभूत (यज्ञ की उद्देश्य पूर्ति ) दो प्रकार के होते हैं। जिन्हें क्रमशः पुरुषार्थ व कृत्वार्थ कहा गया है। एक अन्य दृष्टि से कमों को तीन भागों में बांटा गया है - नित्य, नैमित्तिक और काम्य । नित्य कर्म सभी के लिए आवश्यक है, नैमित्तिक खास निमित्तों पर करने का विधान है व काम्य कर्म फल की इच्छा से किये जाते हैं। नित्य कर्मों का कोई फल नहीं मिलता, पर उसका न करना सामाजिक दायित्व की उपेक्षा होने से पाप है। काम्य कर्म पूरे अनुष्ठान के साथ किया जाना चाहिए। नित्य कर्म में कर्म और फल का सुस्थिर तादात्म्य व यज्ञ कर्म की त्रुटियों के कारण कालान्तर में ज्ञान-दर्शन (वेदान्त) को अधिक महत्व मिल गया। व्याख्या के बारे में भी जैमिनी के सूत्र इतनी अधिक मात्रा में हैं कि उसका व्यापक व स्थायी महत्व होने के उपरान्त भी जनसाधारण कानूनी व्याख्याओं सी जटिलता होने से उसमें रुचि नहीं ले पाता। इतना होने पर भी यह निश्चित Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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