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________________ दर्शन-दिग्दर्शन अंगुल के असंख्यातवें भाग में क्षेत्र को जानता देखना हो, बाद में अवधिज्ञान बढता चले वह वहांतक पहुंच सके कि अलोक के अन्दर भी लोक जैसे असंख्यात खण्ड देखे। इस वर्धमान अवधिज्ञान के लिए ईधन और अग्नि का अथवा दावानल का उदाहरण दिया जाता है । अग्नि में जैसे जैसे ईधन डाला जाय वैसे वैसे अग्नि बढती जाय, उसी प्रकार का अवधिज्ञान उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त होता जाय। (४) हीयमान - पहले शुभ अध्यवसाय और संयम की शुद्धि के साथ वृद्धिगत अवधिज्ञान बाद में अशुभ अध्यवसायों के कारण और संयम की शिथिलता के कारण घटने यह हीयमान अवधिज्ञान धीरे धीरे घटता जाय। इसके लिए अग्नि शिखा का उदाहरण दिया जाता है। दीपक की ज्योति क्रमशः छोटी हो कर अन्त में अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी रह जाय। (५) प्रतिपाती - प्रतिपाति अर्थात वापस गिर जाना। जो अवधिज्ञान संरव्यता या असंख्याता योजन पर्यन्त जानता देखता है, यावत ठेठ समग्र लोकतक देख सकता हो किन्तु बाद में वह अचानक पतित होकर चला जाय, इसके लिए पवन के झपाटेसे बुझते दीपक का उदाहरण दिया जाता है। हीयमान अवधिज्ञान और प्रतिपाती अवधिज्ञान के बीच अन्तर यही है कि हीयमान अवधिज्ञान धीरे धीरे घटता जाता है, जव कि प्रतिपाति अवधिज्ञान एक झपाटे में ही संपूर्ण चला जाता है। (६) अप्रतिपाति - अप्रतिपाति अर्थात वापस न गिरे वह। यह अवधिज्ञान समग्र लोकों को देखने के उपरान्त अलोक काभी कम से कम एक प्रदेश देखता है । अप्रतिपाति अवधिज्ञान अन्तर्मुहूर्त मे केवलज्ञान में समाहित हो जाता है । अर्थात अप्रतिपाति अवधिज्ञान जिसे हो जाय उसे बाद में उसी भव में केवलज्ञान अवश्य होता ही यों अप्रतिपाति अवधिज्ञान केवलज्ञान होने के अन्तर्मुहूर्त पहले प्रगट होता है। इस अप्रतिपाति अवधिज्ञान को परमावधि ज्ञान भी कहा जाता है। परमावधिज्ञान होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान अवश्य होता है। इसलिए उपमा दी जाती है कि परमावधि उषाकाल जैसा है और केवलज्ञान सूर्य प्रकाश जैसा है। केवलज्ञान रूपी सूर्यप्रकाश का उदय होने से पहले उषा की प्रभा स्फुटित होने जैसा परमावधि ज्ञान है। ___ तत्त्वार्थसूत्र मे वाचक उमास्वाति ने (अध्य. १ सूत्र २३ में ) अवधिज्ञान के ये छह भेद बतलाये है - (१) अनुगामी, (२) अननुगामी, (३) हीयमान, (४) वर्धमान, 388888888888860380862855668 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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