SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ देवगति या नरक गति में उत्पन्न होते सभी जीवों को अपनी अपनी गति और पूर्व कर्म के क्षयोपशभ के अनुसार अल्पाधिक अवधिज्ञान प्राप्त होता है। मनुष्य गति मे केवल तीर्थंकर के जीव की च्यवन जन्म से अवधिज्ञान होता है । अन्य सभी मनुष्यों के लिए अवधिज्ञान जन्म से प्राप्त नहीं होता । सब प्रत्ययिक अवधिज्ञान में भी क्षयोशम का तत्त्व आता ही हैं। यदि वैसा न हो तो देवगति और नरक गति में हर एक का अवधिज्ञान एक समान ही हो परन्तु एक समान नहीं होता इस से ज्ञात होता है कि वह क्षयोपशम के अनुसार है । (२) गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यच गति के जीवों को यह अवधिज्ञान होता है । यह हरेक को हो ऐसी बात नहीं, जिसमें तदनुयोग्य गुण का विकास हो उसे यहज्ञान होता है । वस्तुतः : उस प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान प्रगट होता है। कर्म के संपूर्ण क्षय से ( चारों घातीकर्मों के क्षय से ) केवलज्ञान प्रगट होता है । अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान प्रगट होता है । पाप अठारह प्रकार से बंधते है: और बयासी प्रकार से भोगे जाते है । उस में जिस पाप कर्म के उदय से अवधिज्ञान का आच्छादन होता है। उसे अवधिज्ञान वरणीय पाप कर्म कहा जाता है। गुण प्रत्यय अवधिज्ञान के छः प्रकार है - ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. प्रतिपाती, ६. अप्रतिपाती । १. अनुगामी, २ . अतनूगामी, - (१) अनुगामी जिस स्थानक में जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो उस स्थानक से जीव अन्यत्र जावे तो साथ साथ अवधिज्ञान भी जाता है। इसके लिए लोचन का उदाहरण दिया जाता है । मनुष्य के लोचन ( आंखे) जहां जहां मनुष्य जाता है वहां साथ ही होते है । अथवा सूर्य और सूर्यप्रकाश का उदाहरण भी दिया जाय। जहां सूर्य जावे वहां उसका प्रकाश भी जाता है ऐसा यह अवधिज्ञान है । (२) अतनुगामी ~ जिस स्थानक में जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो उस स्थानक में वह जीव हो वहां तक वह ज्ञान रहता है किन्तु जीव अन्यत्र जावे तब उसकेसाथ अवधिज्ञान नहीं जाता। इसके लिए श्रृंखला से बंधे दीपक का उदाहरण दिया जाता है मनुष्य बाहर जाता है तबघर में बंधा दीपक साथ में बाहर नही जाता । Jain Education International 2010_03 (३) वर्धमान संयम की जैसे जैसे शुद्धि बढती जाय, चित्त में प्रशस्त और अध्वसाय होते जाएं वैसे वैसे अवधिज्ञान बढता जाय । अवधिज्ञान जब उत्पन्न हुआ ही तब - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy