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________________ दर्शन-दिग्दर्शन अलौकिक थी। उस समय भी उन्होंने सैकड़ो युवकों को आत्मा की अमरता, दैहिक नश्वरता आदि विषय युक्तिपूर्ण तरीकों से समझाये। उन्हे बचाने के प्रयास भी हुए पर उन्होने राजकीय व्यवस्था भंग करने से इन्कार कर दिया। मृत्यु के रोज उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नता से आह्यादपुर्वक विष का प्याला पी लिया। पास बैठे लोगो की आंखों में आंसू आगये, वेदनाभरी चीत्कार फूट गई पर उन्होने अमोघ शान्ति के साथ मृत्यु का सहर्ष वरण किया। उनके जीवनकाल में डेल्फी की देवी ने उन्हे यूनान का सबसे बड़ा विद्वान उदघोषित किया पर उनकी प्रतिक्रिया थी, “मुझे विद्वान इसलिए कहा गया है क्योकि मैं इतना ज्ञान रखता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता।" सुकरात स्वयं दैविक पुरूष थे व आचरणो में देवत्व के विकास को वे परमात्मत्व मानते थे। सुकरात ने न तो किसी सम्प्रदाय की स्थापना की और न किसी पुस्तक की ही रचना की। पर केवल संवाद, प्रवचन एवं उपदेशो से बड़े भारी समाज को प्रभावित किया व उनकी अनुपम बौद्धिक प्रतिभा व निर्मल चरित्र के आगे कालान्तर में सारा मानव-समाज नतमस्तक हुआ। उदबोधक अफलातूं ईसा से ४२७ वर्ष पूर्व इस महापुरुष का जन्म हुआ। बचपन से ही ये महात्मा सुकरात से प्रभावित थे। प्रारंभ में इनकी महत्त्वाकांक्षा राजनीति की ओर थी किन्तु राजशाही के अत्याचारों से उन्हें जहां राजशाही से घृणा हो गई वहां सुकरात को मौत की सजा सुनाने से बेवकूफ बहुमत के प्रजातंत्र से भी इनका आकर्षण जाता रहा। पेथागोरस समुदाय में सम्मिलित होकर भी इन्होंने अध्ययन किया। सेराक्यूज में वहाँ के राजा ने नाराज होकर इन्हे स्पार्टी के राजदूत को दे दिया जहां उन्होंने इनको खुलेबाजार में बेचा। सौभाग्य से उन्हे उनके एक प्रशंसक ने ही खरीद लिया और वे वापस एथेंस आ गये। यहां पर ईसा से ३८७ वर्ष पूर्व उन्होने एक अकादमी की स्थापना की जिसमें दार्शनिक व वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सुचारू व्यवस्था की गई व स्वयं अफलातुं ने गणित व दर्शन शास्त्र का अध्यापन किया। दर्शन शास्त्र के मूल में धार्मिक व पवित्र जीवन बिताने का अभ्यास दिया गया। यूनान में अव्यवस्था व अराजकता की स्थिति में भी अफलातुं की अकादमी ने शिक्षा के क्षेत्र में सदा आलोक जगाए रखा। गणित व ज्यामिती के अध्ययन को पूर्ण सत्य तक पहुचने का साधन मानने वाले अफलातुं बौद्धिकता को सदा महत्त्व देते रहे व Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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