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________________ 209999 दर्शन-दिग्दर्शन क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषाय कहीं गयी है। कषाय ही आत्मा की विकृति का मूल कारण है। कषायों का पूर्णतः अन्त होना ही जीव का भव-भ्रमण से मुक्त होना है - कषाय मुक्तिः फिल मुक्तिरेव। गुणस्थान गुणस्थान वस्तुतः यौगिक शब्द है। गुण और स्थान के योग से 'गुणस्थान' शब्द का गठन होता है। गुण शब्द वस्तुतः आत्मा की विशेषता का बोधक है। आत्मा की विशेषताएं पांच प्रकार की है जिन्हें भाव भी कहते हैं। १) कर्मों के उदय से औदयिक भाव २) कमों के क्षय से क्षायिकभाव ३) कषाय के शमन से औपशमिकभाव ४) क्षयोपशम से क्षयोपशमिकभाव ५) कर्मों के उदय आदि से न होकर स्वाभाविक होने से ‘पारिणामिकभाव' । ये पाँचों भाव ही वस्तुतः गुण हैं और 'स्थान' से तात्पर्य है भूभिका। इस प्रकार आत्मा के भावों की भूमिका कहलाती है - गुणस्थान। गुणस्थान चौदह कहे गये है जो आत्मा के उत्तरोत्तर विकास के परिचायक हैं। प्रथम से तीसरे गुण स्थान वाले जीव कहलाते हैं - बहिरात्मा । बहिरातभा सदा मिथ्यादर्शी होते हैं। चौथे से बारह गुणस्थान वाले जीव अन्तरात्मा कहलाते हैं, ऐसे जीव सदा सम्यकदर्शी होते हैं और तेरहवे तथा चौदहवें गुणस्थान वाले जीव कहलाते हैं - परमात्मा। परमात्मा सदा सर्वदर्शी होते हैं। .. इस प्रकार संसार के अनन्तान्त जीव राशि इन्ही चौदह गुणस्थानों मे समाविष्ट हो जाती है। जैन संघ अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने जब धर्म-शासन की स्थापना की तब जैन संघ के स्थापन की आवश्यकता भी अनुभव हुई और तब 'जैन संघ' भी गठित किया गया। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का समवाय जैन संघ के रूप को स्वरूप प्रदान करता है। साधु और साध्वी-जीवन प्रायः निवृत्तिपरक होता है जबकि श्रावक और श्राविका गृहस्थ का समुचित प्रवृत्ति मूला स्वरूप स्थिर करता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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