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________________ स्वः मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ अतः प्रमाद न करने का एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपनी मुक्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्न करे । पुरुषार्थ और पराक्रम वस्तुतः मानव-प्रयत्न में है। जैनदर्शन में किसी भी अतिप्राकृतिक और दैवी शक्ति, जिसे हम प्रायः 'ईश्वर' कहते हैं, में विश्वास नहीं किया गया है। मनुष्य अकेला आया है और अकेला ही जाएगा । उसे किसी अन्य से - ईश्वर से भीकोई सहायता प्राप्त होने वाली नहीं हैं। मनुष्य का एकमात्र मित्र मनुष्य स्वयं ही है । किसी मित्र या सहायक को अपने से बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। महावीर कहते है - पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? (१३६ / ६२) अतः उठो और प्रमाद न करो अनन्य और परम पद प्राप्त करने हेतु क्षण भर प्रमाद न करो - अणण्ण परमं नाणी, मायाई वि (१३४ / ५६ ) । जब तक कान सुनते हैं और आंखें देखती हैं, नाक सूंघ सकती है और जीभ रस प्राप्त कर सकती हैं जब तक स्पर्श की अनुभूति अक्षुण्य है - इन नाना रूप इन्द्रिय ज्ञान के रहते पुरुष के लिए, यह अपने ही हित में है, कि वह सम्यक अनुशीलन करे ( ७४/७५) । बाद में यह अवसर नहीं आएगा। हे पंडित, तू क्षण को जान और प्रमाद न कर । मेधावी बनाम मंदमति आयारो में मनुष्य के दो स्पष्ट प्रारूप बताए गए है - मेधावी और मूढ़ या मंदमति । प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है मेधावी और मूढ़ मानव बुद्धि का एक माप है जिसके एक छोर पर 'मेधावी' और दूसरे छोर पर 'मंद- मति' है । लेकिन वस्तुतः ऐसा है नहीं । यह मानव बुद्धि का पैमाना न होकर व्यक्तियों के दो वर्ग हैं। मेधावी व्यक्तियों की कुछ नैतिक- चारित्रिक विशेषताएँ हैं जो मंदमति व्यक्तियों से भिन्न और उनकी विरोधी है। मंद लोग मोह से आवृत्त होते हैं । ये आसक्ति में फंसे हुए लोग हैं- मंदा मोहेण पाउडा (७६ / ३०)| दूसरी ओर मेधावी पुरुष मोह और आसक्ति को अपने पास फटकने नहीं देते। वे इन सब से निवृत्त होते हैं। अरिइं आउट्टे से मेहावी (७६ / २७)-जो अरति का - चैतविक उद्वेगों का निवर्तन करता है, वही मेधावी है। आसक्ति मनुष्य को बेचैन करती है, अशांत करती है उसे व्यथित और उद्वेलित करती है। किन्तु मेधावी पुरुष वह है जो न चिंतित होता है न व्यथित या उद्वेलित । वह सभी उद्वेगों को अपने से बाहर निकाल फेंकता है। उनसे निवृत्ति पा लेता है। Jain Education International 2010_03 २२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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