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________________ स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ इसलिये आज तपस्वी कहने से सीधा बोध उन व्यक्तियों का होता है, जो उपवास करते हैं। सामान्य लोगों में तप के अर्थ की व्यापकता सिमटकर आहार त्याग में रह गई है। इस दृष्टि से उपवास तप का प्रतीक बन गया है। उपवास तप को जैन धर्म में अनशन तप माना गया है। यूं कहना चाहिए अनशन तप की साधना में कम से कम उपवास करना होता है। अवमोदरिका तप में भूख से कम खाया जाता है और वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का अल्पीकरण किया जाता है। भिक्षाचर्या तप में विविध प्रकार के संकल्प किए जाते हैं। संकल्प पूर्ण होने पर भिक्षा ग्रहण की जाती है, अन्यथा उपवास किया जाता है। रस परित्याग तप में रस का त्याग किया जाता है। दूध, दही, आदि रस (विगय या विकृति) नहीं खाए जाते या उनकी सीमा की जाती है। आहार सम्बन्धी छोटे-से-छोटा त्याग भी तप है। तप की परिभाषा शब्द रचना की दृष्टि से तप शब्द तप धातु से बना है। जिसका अर्थ है तपना। निरूक्त की दृष्टि से आचार्य अभयदेवसूरी ने तप शब्द का निरूक्त किया है - ‘रस-रूधिर-मांस-मेदास्थि मज्जा-शुक्राण्यनेन तप्यन्ते कर्माणि वाशुभानीत्यतस्तपो नाम निरूक्तः।' जिस साधना के द्वारा रस, रूधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र तप जाते हैं, सूख जाते हैं अथवा अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं, जल जाते हैं उसे तप कहते हैं। प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य मलयदेवसूरि ने कहा है - __ 'तापयति अष्टप्रकार कर्म इति तपः।' जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है. वह तप है। ताप का अर्थ है उष्णता। उष्णता ठोस को द्रव करती है। धातु को पिघलाना हो तो उसे ताप के द्वारा ही पिघलाया जा सकता है। आत्मा के साथ गाढ़ रूप से चिपके हुए कर्मों का सम्बन्ध विच्छेद करना हो तो वह तप के द्वारा ही किया जा सकता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012059
Book TitleMohanlal Banthiya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKewalchand Nahta, Satyaranjan Banerjee
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1998
Total Pages410
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size19 MB
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