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________________ १०८ ] જ્ઞાનાંજલિ हो गया है । इस ग्रंथमें श्रीकृष्णके पिता वसुदेवका कुमारावस्था में देशभ्रमण वर्णित है । देशाटनकी विविध सामग्री एवं प्राचीन कथासाहित्यके इतिहासकी दृष्टि से ही यह ग्रंथ महत्त्वका है इतना हो नहीं, किंतु महाकवि गुणाढ्यकी वडु कहाका क्या स्वरूप था, इसका पता चलानेके लिए और तुलनाके लिए भी यह ग्रंथ बड़े महत्त्वका है। जर्मन् विद्वान् डॉ० आल्स्डॉर्फने इस ग्रंथका इस दृष्टिसे अध्ययन करके वहाँके जर्नलमें एक लेखे भी इस विषयमें लिखा था। इस ग्रंथका प्रथम खंड और इसका गुजराती भाषामें अनुवाद भावनगरको ‘श्री जैन आत्मानंद सभा' ने प्रकाशित किया है । मूल प्राकृत ग्रंथका संपादन हम गुरु-शिष्य श्री चतुरविजयजी महाराज और मैं, दोनोंने साथ मिल कर किया है। और गुजराती अनुवाद डॉ० भोगीलाल जे० सांडेसराने किया है। इस प्रथम खंडका सारभाग यूरोपकी स्वीडिश भाषामें भी प्रकाशित हो चुका है। इस प्रथम खंडके पृ० २४०-२४५ में रामायणका संक्षिप्त वर्णन है और यह बडे महत्त्वका भी है । अध्ययन करने वालोंको यह अंश अवश्य ही देखना चाहिए। ४. चउपण्णमहापुरिसचरियं-- इसकी रचना निर्वृतिकुलीन आचार्य श्री मानदेवके शिष्य आचार्य श्री शीलांक-अपरनाम श्री विमलमतिने प्राकृतभाषामें गद्य-पद्य रूपमें की है । इसका रचनासमय अनुमानतः विक्रमकी नवीं-दसवीं शताब्दी प्रतीत होता है । इसकी ११५०० श्लोक संख्या है। इसमें आचार्य श्री शीलांकने प्रसंगोपात्त रामायणका संक्षिप्त वर्णन किया है। यह अंश सिर्फ ५० श्लोक जितना है । इस चरितग्रंथमें आचार्यने 'विबुधानंद' नामक एकांकी रूपक-रचनाका भी समावेश किया है। ५. कहावली-इसकी रचना आचार्य श्री भद्रेश्वरसूरिने प्राकृतमें की है । ग्रंथका प्रमाण २३००० श्लोक जितना है। इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, फिर भी अनुमानतः विक्रमकी नवीं-दसवीं सदीसे अर्वाचीन नहीं है। इसमें आचार्यने रामायणका वर्णन ठीक रूपमें किया है। वसुदेव हिंडी एवं चउपण्णमहापुरिसचरियंकी अपेक्षा ठीक-ठोक है, विस्तृत है । ६. सीयाचरियं-यह ग्रंथ प्राकृत भाषामें है। इसके रचयिताके नामका पता नहीं चला है। ३४०० इसकी ग्रंथसंख्या है । ग्रंथ अर्वाचीन कृति नहीं है । ऊपर जिन ग्रंथों के नामोंका उल्लेख किया गया है, उनके अतिरिक्त और भी इस विषयके १ डॉ. आल्स्डॉर्फके इस निबंधका गुजराती अनुवाद डॉ० सांडेसराने अपने गुजराती अनुवादकी प्रस्तावनामें दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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