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________________ હનીસૂત્રકે પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર [७३ देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमणको एक व्यक्ति मानके ही दिये हैं । यह भी श्री कल्याणविजयजो महाराजकी मान्यताको पुष्ट करनेवाला सबूत है। तथापि नन्दीकी स्थविरावलीमें अंतिम स्थविर दुष्यगणि हैं, जिनको नन्दीचूर्णिकारने देववाचकके गुरु दर्शाये हैं। तब कल्पसूत्रकी वि. सं० १२४६ में लिखित प्रतिसे लेकर आज पर्यन्तकी प्राचीन-अर्वाचीन ताडपत्रीय एवं कागजकी प्रतियोंमें स्थविरावलिके पाठोंकी कमी-बेशीके कारण कोई एक स्थविरका नाम व्यवस्थित रूपसे पाया नहीं जाता है। इस कारण इन दोनों स्थविरोंको एक मानना कहाँ तक उचित है, यह तज्ज्ञ विद्वानोंके लिये विचारणीय है । देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमण इन नाम और विशेषण-उपाधिमें भी अंतर है । साथमें यह भी देखना जरूरी है कि नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीमें वायगवंस, वायगपय, बायग, इस प्रकार वायग शब्दका ही प्रयोग मिलता है, दूसरे कोई वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर जैसे पदोका प्रयोग नजर नहीं आता है। अगर देववाचकको क्षमाश्रमणकी भी उपाधि होती तो नन्दीचूर्णिकार जरूर लिखते ही । जैसे द्वादशारनयचक्रटीकाके प्रणेता सिंहवादी गणि क्षमाश्रमण, विशेषावश्यककी अपूर्ण स्वोपज्ञ टोकाको पूरी करनेवाले कोट्टायवादी गणि महत्तर, सन्मतितके प्रणेता वादी सिद्धसेनगणी दिवाकर आदि नामोंके साथ दो विशेषण-उपाधियाँ जुडी हुई मिलती हैं इसी तरह देववाचकके लिये भी दो उपाधियोंका निर्देश जरूर मिलता । अतः देववाचक और देवर्द्धिक्षमाश्रमण, ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं या भिन्न, यह प्रश्न अब भी विचारणीय प्रतीत होता है । कल्पसूत्रकी स्थविरावली और नन्दीसूत्रकी स्थविरावलीका मेलझोल कैसे, कितना और कहाँ तक हो सकता है, यह भी विचारार्ह है। वाचकपदको अपेक्षाकृत प्राचीनता होने पर भी कल्पसूत्रकी समय समय पर परिवर्धित स्थविरावलीमें घेर और स्वमासमणपदका ही निर्देश नजर आता है, यह भी दोनों स्थविर और स्थविरावलीकी विशेषता एवं भिन्नताके विचारका साधन है । यहाँ पर प्रसंगोपात्त एक बात स्पष्ट करना उचित है कि-भदेश्वरसूरिकी कहावलीमें एक गाथा निम्नप्रकारकी नज़र आती है वाई य खमासमणे दिवायरे वायगे ति एगट्ठा । पुचगयं जस्सेसं जिणागमे तम्मिमे नामा ॥ .. ___अर्थात् - वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर और वाचक, ये एकार्थक-समानार्थक शब्द हैं। जिनागममें जो पूर्वगत शास्त्र हैं उनके शेष अर्थात् अंशोंका पारम्परिक ज्ञान जिनके पास है उनके लिये ये पद हैं। ___ इस गाथासे यह स्पष्ट है कि-इन उपाधियोंवाले आचार्योंके पास पूर्वगतज्ञानकी परंपरा थी। किन्तु आज जैन परम्परामें जो ऐसी मान्यता प्रचलित है कि-इन पदधारक आचार्योंको एक पूर्वमादिका ज्ञान था, यह मान्यता भ्रान्त एवं गलत प्रतीत होती है । कारण यह है कि अगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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