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________________ જૈન આગમશ્વર ઔર પ્રાકૃત વાડ્મય कित्ती- कंतिपिणो जलपत्तपडहो (?) तिसागरणिरुद्धो । पुणरुत्तं भमति महि ससि व्व गगणंगणं तस्स ॥२॥ तस्स लिहियं णिसीहं धम्मधुराधरण पवरपुजस्स । आरोगधारणिज्जं सिस्स - पसिस्लोवभोज्जं च ॥३॥ दिगम्बर परम्परा में लाके अनुसार १४ अंगबाह्य अर्थाधिकार हैं. इनमें कल्प और व्यवहारको एक माना गया है तथा निशीथको अलग स्थान दिया गया है. इससे यह तो स्पष्ट होता है कि कल्प, व्यवहार और निशोथकी अंगबाह्य अर्थाधिकारकी परम्परा चली आती थी. भद्रबाहुकृत कल्प व्यवहार जिस रूपमें आज श्वेताम्बर परम्परा में मान्य है उसी रूपमें दिगम्बर परम्परा में उल्लिखित अंगबाह्य कल्पादि मान्य थे या उससे भिन्न- यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, किन्तु उनका जो विषय बताया गया है यही विषय उपलब्ध भद्रबाहुकृत कल्पादि में विद्यमान है. दोनों परम्पराओंके मतसे स्थविरकृत रचनाएं अंगबाह्य मानी जाती रही हैं. भद्रबाहु तक श्वेताम्बर दिगम्बरका मतभेद स्पष्ट नहीं था. इन तथ्योंके आधार पर संभावना की जा सकती है कि कल्प-व्यवहारके जिन अधिकारों का उल्लेख धवलामें है उन अर्थाधिकारोंका सूत्रात्मक व्यवस्थित संकलन सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहुने किया और वह संघको मान्य हुआ. इस दृष्टि धवला में उल्लिखित कल्प-व्यवहार और निशीथ तथा उपलब्ध कल्प व्यवहार और निशीथमें भेद मानका कोई कारण नहीं है. फिर भी दोनों की एकताका निश्चयपूर्वक विधान करना कठिन है. [ २३ आचार्य भद्रबाहु की जो विशेषता है वह यह है कि इन्होंने अपने उक्त ग्रंथों में उत्सर्ग और अपवादोंकी व्यवस्था की है. इतना ही नहीं किन्तु व्यवहारसूत्र में तो अपराधों के दण्डकी भी व्यवस्था की गई है. ऐसी दण्डव्यवस्था एवं आचार्य आदि पदवीकी योग्यता आदिके निर्णय सर्वप्रथम इन्हीं ग्रंथोंमें मिलते हैं. संघने ग्रंथोंको प्रमाणभूत माना यह आचार्य भद्रबाहुकी महत्ताका सूचक है. श्रमणों के आचार के विषय में दशवैकालिकके बाद दशा-कल्प आदि ग्रंथ दूसरा सीमास्तम्भ है. साथ ही एक वार अपवादकी शुरूआत होने पर अन्य भाष्यकारों व चूर्णिकारोंने भी उत्तरोत्तर अपवादोंमें वृद्धि की. संभव है कि इसी अपवाद-मार्गको लेकर संघ में मतभेदकी जड़ दृढ होती गई और आगे चल कर श्वेताम्बर - दिगम्बरका सम्प्रदाय-भेद भी दृढ हुआ. बृहत्कल्प भा० ६ की प्रस्तावना में मैंने अनेक प्रमाणोंके आधार पर यह सिद्ध किया है कि उपलब्ध नियुक्तियों के कर्त्ता श्रुतकेवली भद्रबाहु नहीं है किन्तु ज्योतिर्विद वराह मिहिर के भ्राता / द्वितीय भद्रबाहु हैं जो विक्रमकी छठी शताब्दीमें हुए हैं. अपने इस कथनका स्पष्टीकरण करना यहाँ उचित है. जब मैं यह कहता हूं कि उपलब्ध निर्युक्तियाँ, द्वितीय भद्रबाहुकी हैं, श्रुतकेवली भद्रबाहुकी नहीं तब इसका तात्पर्य यह नहीं कि श्रुतकेवली भद्रबाहुने नियुक्तियों की रचना की ही नहीं. मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि जिस अन्तिम संकलनके रूपमें आज हमारे समक्ष नियुक्तियाँ उपलब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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