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________________ दिगम्बर जैन परम्परा में संघ, गण, गच्छ, कुल और अन्यव पूज्यपाद के शिष्य वजनन्दि ने वि.सं. 526 में दक्षिण के मदुरा में द्राविडसंघ की स्थापना की।28 शिलालेखों में द्राविडसंघ का पहले कुन्दकुन्दान्वय तथा मूलसंघ के साथ फिर नन्दिसंघ के साथ सम्बन्ध दिखलाई पड़ता है। बाद में यह यापनीय सम्प्रदाय के विशेष प्रभावशाली नन्दिसंघ में, इस सम्प्रदाय में अपना व्यावहारिक रूप पाने के लिए उससे सम्बन्ध रखा और द्राविडगण के रूप में उक्त संघ के अन्तर्गत हो गया। बाद में यह द्राविडगण इतना प्रभावशाली हुआ कि उसे ही संघ का रूप दे दिया गया और नन्दिसंघ को नन्दिगण के रूप में निर्दिष्ट किया गया।29 काष्ठासंघ-- यह अन्यसंघों की अपेक्षा अर्वाचीन है। इसकी स्थापना आचार्य जिनसेन के सतीर्थ्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन द्वारा वि.सं. 753 में हुई, जो नन्दितट में रहते थे। पं. नाथूराम प्रेमी ने इस तिथि को निश्चित नहीं माना। वि.सं. 1734 के पं. बुलाकीचन्द्र के अनुसार काष्ठासंघ की उत्पत्ति उमास्वामी के पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा अगरोहा नगर में हुई और काठ की प्रतिमा की पूजा का विधान करने से उसका नाम काष्ठासंघ पड़ा। इस संघ का सर्वप्रथम शिलालेखीय उल्लेख सं. 1088 के दूवकुण्ड से प्राप्त लेख में है। बलात्कारगण -- नाम साम्य को देखते हुये यापनीयों के बलहारि या बलगार गण से यह निकला है। क्योंकि दक्षिणपथ के नन्दिसंघ में "बलिहारी या बलगार" गण के नाम पाये जाते हैं, किन्तु उत्तरापथ के नन्दिसंघ में सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण ये दो ही नाम मिलते हैं। "बलगार" शब्द दक्षिण भारत के एक ग्राम विशेष का द्योतक है। बलगार गण का पहला उल्लेख सन् 1071 का है। मूलसंघ नन्दिसंघ का बलगार गण ऐसा नाम दिया है।31 दूसरा मत यह है कि "बलात्कार" शब्द स्थानवाची नहीं है, अपितु बलात् (जबरदस्ती) धार्मिक यौगिक क्रियाओं में अनुरक्त होने या लगे रहने आदि के कारण इसका नाम "बलात्कार" हुआ जान पड़ता है। इसके लिए एक मूर्ति-लेख का उदाहरण (शक सं. 1277 का) इस प्रकार है -- "कुन्दकुन्दान्वय, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण, मूलसंघ के अमरकीर्ति आचार्य के शिष्य, माघनन्दि व्रती के शिष्य भोगराज बरा शान्तिनाथ की मूर्ति की स्थापना की गई।" यापनीय संघ एक समय ऐसा आया कि तत्त्वज्ञान एक होने पर भी आचारगत भिन्नता के कारण दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा की दूरी उत्तरोत्तर दूर होती जा रही थी। अतः इन दोनों में सामंजस्य लाने का श्रेय "यापनीयसंघ" को है। इसके प्रादुर्भाव के पीछे काफी मतभेद है किन्तु यह काफी प्राचीन है। कदम्ब नरेश मृगेशवर्मा के एक ताम्रपत्र (सन् 470 ई. ) में इस मतभेद का एक उल्लेख श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्गन्थ महाश्रमणसंघ के रूप में भी किया गया है। इसी नरेश के एक-दूसरे लेख में यापनीय और कूर्चक संघ के साथ निर्गन्थ संघ का उल्लेख है। वस्तुतः यापनीयसंघ दिगम्बर परम्परा के काफी नजदीक है। एक समय यापनीयसंघ बड़ा ही राज्यमान्य था। इसका प्रधान केन्द्र कर्नाटक देश का उत्तरीय-प्रदेश रहा है। इसमें अनेकों श्रेष्ठ प्रतिभाशाली विद्वान् आचार्य हुये हैं। इस सम्प्रदाय के कई ग्रन्थ दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य हैं और कुछ संशोधन के साथ पढ़े जाते हैं। शिवार्यकृत भगवतीआराधना और इसकी विजयोदयाटीका के कर्ता आचार्य अपराजित सूरि तथा शाकटायन आदि अनेक आचार्य यापनीय परम्परा से सम्बद्ध श्रेष्ठ आचार्य माने जाते हैं। संघभेद इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में भद्रबाहु एवं लोहाचार्य तक की गुरु परम्परा के पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदल और अर्हदत्त -- डन चार आचार्यों का उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वो के 137 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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