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________________ डॉ. फूलचन्द जैन "प्रेमी" काल में 9-10वीं शताब्दी के लगभग सभी गणों को मलसंघ के एक छत्र के नीचे एकत्रित किया गया तथा मूलसंघ को चार शाखाओं में विभाजित किया गया -- सेन, नन्दि, देव और सिंह । इस संघ में स्थान आदि के नाम पर विशेषकर दक्षिण भारत के स्थानों के नाम से स्थापित विभिन्न संघ, गण, गच्छ आदि के अग्र लिखित उल्लेख मिलते हैं। 24 जैसे -- 1. संघ -- इसके अन्तर्गत मुख्यरूप में मूलसंघ, नन्दिसंघ, नविलूरसंघ, मयूरसंघ, किचूरसंघ, किटूरसंघ, कोल्लतूरसंघ, गनेश्वरसंघ, गौडसंघ, श्रीसंघ, सिंहसंघ, परलूरसंघ आदि। 2. गण -- बलात्कारगण (प्रारम्भिक नाम बलिहारी या बलगारगण), सूरस्थगण, कोलाग्रगण, उदार, योगरिय, पुन्नागवृक्ष, मूलगण, पकुर आदि। 3. गच्छ -- चित्रकूट, होत्तगे, तिगरिल, होगरि, पारिजात, मेषपाषाण, तित्रिणीक, सरस्वती, पुस्तक, वक्रगच्छ आदि। 4. अन्वय -- कौण्डकुदान्वय, श्रीपुरान्वय, कित्तूरान्वय, चन्द्रकवाटान्वय, चित्रकूटान्वय आदि।25 सामान्यतः दिगम्बर परम्परा में प्रमुख चार संघ हैं -- मूलसंघ, द्रविडसंघ, काष्ठासंघ और यापनीयसंघ। इनमें प्राचीन मूल, द्राविड व यापनीय तीनों संघों में कतिपय गणों व गच्छों के समान नाम मिलते हैं। मूलसंघ में द्रविडान्वय तथा द्रविडसंघ में कोण्डकुन्दान्वय का उल्लेख मिलता है। मूलसंघ के सेन व सूरस्थगण द्राविडसंघ में भी प्राप्त होते हैं। नन्दिसंघ तीनों में ही है। मूलसंघ के बलात्कारगण, क्राणूरगण यापनीयसंघ में भी हैं। इनमें इन संघों की शाखाओं के संक्रमण का भी पता चलता है।26 नन्दिसंघ डॉ. चौधरी के अनुगार7 ऐतिहागिक तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि नन्दिसंघ या गण बहुत प्राचीन है। इस संघ की एक प्राकृतपट्टानली मिली है। नन्दिसंघ यापनीय और द्राविडसंघ में भी पाया जाता है। सम्भव है कि प्रारम्भ में नन्दान्त नामधारी (यथा - देवनन्दि, विद्यानन्दि आदि) मुनियों के नाम पर इसका संगठन किया गया हो अथवा नन्दिसंघ की परम्परा में दीक्षित होने के कारण इनके नाम के साथ "नन्दि" जुड़ गया हो। मूलसंघ के साथ इसका उल्लेख यापनीय एवं द्राविड संघ के बाद 12वीं शताब्दी के लेखों में पाते हैं, पर 14-15वीं शताब्दी में नन्दिसंघ एवं मूलसंघ एक-दूसरे के पर्यायवाची बन जाते हैं। इस संघ की उत्पत्ति प्रारम्भ में गुफावासी मुनियों से कही गई है, जिससे प्रतीत होता है कि इस संघ के मुनिगण कठोर तपस्या प्रधान निर्लिप्त वनवासी थे, पीछे तो गुगधर्म के अनुसार वे बहुत बदल गये। देवसंघ-- देवसंघ का संगठन देवान्त नामधारी (नाम के साथ देव नामक संघ परम्परा के होने वाले) मुनियों पर से हुआ था, पीछे इसका प्रतिनिधि देशीगण उपलब्ध होता है। सेनसंघ-- सेनसंघ का नाम भी सेनान्त अपने नाम के साथ "सेन" लिखने वाले, जैसे जिनसेन आदि मुनियों से हुआ है और इसके प्रतिष्ठापक "आदिपुराण" के कर्ता जिनसेन भट्टारक माने जाते हैं। पर इन्होंने अपने गुरु वीरसेन को पंचस्तूपान्वय का लिखा है। इस अन्वय का उल्लेख पाँचवीं शताब्दी के पहाड़पुर (बंगाल) के लेखों में मिलता है। मथुरा के पंचरतपों का वर्णन हरिवंश कथाकोष में आया है। लगता है यह बहुत प्राचीन मुनिसंघ था। सेन गण का पीछे बहुत नाम हुआ, प्रायः सभी भट्टारक सेन गण के ही हुए हैं। इनके मठ कोल्हापुर, मद्रास, पोगोंड (आंध) और कारंजा में हैं सेनान्वय बड़ा प्रभावशाली रहा है। द्राविडसंघ -- द्राविडदेश के साधु समुदाय का नाम द्राविडसंघ है। दर्शनसार ग्रन्थ में लिखा है कि आचार्य 136 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012052
Book TitleShwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages176
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size10 MB
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