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________________ जोइन्दु कृत अमृताशीति सुदीप कुमार जैन आचार्य जोइन्दु को आधुनिक इतिहासवेत्ताओं एवं मनीषियों ने छठवीं शताब्दी ईस्वी के आध्यात्मिक क्रान्ति-द्रष्टा महापुरुष व अपभ्रंश के महाकवि के रूप में स्वीकार किया है। उनकी बहुश्रुत व सुनिर्णीत कृतियों-परमात्मप्रकाश (परमप्पयासु) व योगसार ( जोगसारु ) के आधार पर ये दोनों धारणायें ( काल- छठवीं शती० ई० व अपभ्रंश के कवि) सुनिश्चित की गई हैं । परन्तु उनकी अन्य दो कृतियाँ इन दोनो धारणाओं पर प्रश्नचिह्न अंकित कर रही हैं । ये दोनों कृतियाँ हैं -(१) निजात्माष्टक और (२) अमृताशीति । इसमें 'निजात्माष्टक' प्राकृत रचना है और 'अमृताशीति' संस्कृत में रचित है। यह इस तथ्य का द्योतक है कि जोइन्दु मात्र अपभ्रंश भाषा के ही कवि नहीं थे, अपितु अपभ्रंश के साथसाथ प्राकृत और संस्कृत पर भी उनका समान अधिकार था। अब हम काल सम्बन्धी मान्यता पर विचार करते हैं । डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने विविध साक्ष्यों की समीक्षा कर आचार्य कुन्दकुन्द (प्रथम शताब्दी ई०) व आचार्य पूज्यपाद (पाँचवीं शताब्दी ) के साहित्य का प्रभाव जोइन्दु पर देखते हुए इनका काल ईसा की छठी शताब्दी निर्धारित किया है। इसके विपरीत आचार्य जोइन्दु ने अपने अमृताशीति नामक ग्रन्थ में आचार्य भट्टाकलंक देव तथा आचार्य विद्यानन्दी स्वामी का नामोल्लेख करते हुए उनके ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं । ३ चूंकि इन दोनों का काल क्रमशः ६-७ वीं शती स्वीकृत किया गया है। अतः जोइन्दु के काल के विषय में पुनर्विचार अत्यन्तावश्यक है। प्रस्तुत 'अमृताशीति' नामक ग्रन्थ आचार्य जोइन्दु की ही रचना है। इसकी पुष्टि में कतिपय प्रमाण प्राप्त होते हैं। यद्यपि डॉ० ए० एन० उपाध्ये प्रभृति विद्वानों ने इसे जोइन्दु का ग्रन्थ स्वीकार किया है; परन्तु उन्हें यह ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो सका था। इस ग्रन्थ को आचार्य जोइन्दु कृत प्रमाणित करने वाले कुछ प्राचीन व ऐतिहासिक साक्ष्यों का विवरण इस प्रकार है (१) नियमसार ( आ० कुन्दकुन्द ) के टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ( ११४०-११८५ ई०) ने अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में अमृताशीति के १९ वें, ५५ वें, ५६ वें, ५७ वें तथा ६१ वें छन्दों को तथा 'चोक्तममृताशीतौ' एवं 'तथाचोक्तं योगीन्द्रदेवैः' कहकर उद्धृत किया है। (२) आचार्य जोइन्दु के चारों ग्रन्थों ( परमात्मप्रकाश, योगसार, निजात्माष्टक और १. डॉ० ए० एन० उपाध्ये आदि । २. अगास से प्रकाशित परमात्मप्रकाश योगसार की भूमिका : डॉ० ए० एन० उपाध्ये । ३ अमृताशीति, छन्द क्रमांङ्क ५९ व ६८। ४. परमात्मप्रकाश-योगसार की डॉ० ए० एन० उपाध्ये की प्रस्तावना । ५ नियमसार, तात्पर्यवृति क्रमशः गाथा १०४, ४३, १८०, १२४ व १४७ की टीकाओं में उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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