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________________ २६ जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद गया है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक और मध्यस्थ भाव से युक्त कहा गया तो दूसरी ओर उन्हें कोलाहल प्रिय भी कहा गया है। एक ओर उन्हें आकाश में गमन करने की शक्ति आदि अनेक विशिष्ट प्रकार की सिद्धियों से सम्पन्न बताया गया है, दूसरी ओर उन्हें कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करने वाला भी कहा गया है।' उपर्युक्त विवरण से ऐसा लगता है कि यद्यपि ग्रंथकार एक ओर उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान करना चाहता है, तो दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व के धूमिल पक्ष को भी प्रकट करता है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक तथा मध्यस्थ भाव ( समभाव) से युक्त कहना तथा दुसरी ओर अविरत, असंयत, अप्रतिहत (पापकर्मा) कहना अपने आप में विरोधाभासपूर्ण है। इन दोनों विवरणों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ ऋषिभाषित साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ऊपर उठकर नारद के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता है, वहाँ ज्ञाताधर्मकथा में उनके प्रति साम्प्रदायिक अभिनिवेश स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ऋषिभाषित और ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त जैन परम्परा में नारद का उल्लेख 'समवायांग' में भी मिलता है उसमें उन्हें २१ वें भावीतीर्थंकर के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह माना गया है कि नारद का जीव आगामी उत्सर्पिणी काल में विमल नामक २१ वाँ तीर्थकर होगा । पुनः औपपातिक में ब्राह्मण संन्यासियों की आठ परम्पराओं में 'नारद' की परम्परा का उल्लेख भी है। साथ ही उसमें यह भी माना गया है कि वे शौच पर अत्यधिक बल देते थे और चारों वेद, पुरा.. दि अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे । इसिमण्डल में भी नारद का उल्लेख है, उसमें इन्हें 'सत्य ही शौच है' नामक प्रथम अध्ययन का प्रवक्ता कहा गया है। यह संकेत ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन का ही सूचक है। आवश्यकचूर्णी में नारद को यज्ञदत्त और सोमयशा का पुत्र शौरीपुर का निवासी कहा गया है और इसकी समानता कच्छुल नारद से बताई गई है । ५ इस प्रकार जैन आगम साहित्य में नारद का उल्लेख 'ऋषिभाषित' 'समवायांग' 'ज्ञाताधर्मकथा' 'औपपातिक' 'ऋषिमण्डल' और 'आवश्यकचूर्णी' में उपलब्ध होता है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि ज्ञाताधर्मकथा और ऋषिभाषित के नारद एक ही हैं। हमें समवायांग औपपातिक और आवश्यकचर्णी में उल्लिखित नारद भी वही लगते हैं। इस बात का प्रमाण यह है कि दोनों में उन्हें शौचधर्म का प्रतिपादक बताया गया है। पुनः समवायांग में जिस नारद का भावी तीर्थंकर के रूप में उल्लेख हुआ है वह नारद भी ऋषिभाषित में उल्लिखित नारद ही हैं। क्योंकि हम देखते हैं कि 'समवायांग' में ऋषिभाषित के ऋषियों में से भयाली, द्वैपायन, नारद, अम्बड़ और सारिपुत्र को भी भावी तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि यहाँ एक असंगति हमारे सामने यह आती है कि सामान्यतया प्रत्येकबुद्ध को उसी भव में सिद्ध होने वाला माना जाता है। अतः नारद को एक ओर भावी तीर्थकर मानना और दूसरी ओर प्रत्येकबुद्ध कहना अपने आप में विरोधाभास का सूचक है। परम्परागत विद्वानों को इस असंगति पर विचार करना चाहिए। १. ज्ञाताधर्मकथा १।१६।१३९ २. समवायांगसूत्र, ६६८ / गाथा ८१ ३. औपपातिकसूत्र-संन्यासियों का अधिकार सूत्र ७६ गाथा १ ४. इसिमण्डलवृत्ति, पूर्वार्द्ध, गाथा ३५ ५. आवश्यक चूर्णी भाग २ पृ० १९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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