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________________ १६ नयचक्र में उद्धृत आगम-पाठों की समीक्षा गोयम शब्द ही पाया जाता है। आत्मा के लिए आता प्रयोग मिलता है तथा पासति, वुच्चति, कतो आदि पद प्राप्त होते हैं जिनमें मध्यवर्ती त का कहीं भी लोप नहीं हुआ है। जब कि वर्तमान उपलब्ध आगम पाठों में आया, पासइ, वुच्चइ, कओ आदि पाठ मिलते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि नयचक्र में उद्धत आगम पाठों की भाषा प्राचीन है। उपलब्ध आगम में कालक्रम से भाषाकीय परिवर्त उपलब्ध आगम की भी कई प्रतियाँ उपलब्ध हैं तथा अनेक प्रतियों का उपयोग करके आगमों का संपादन आज भी हो रहा है तथापि यह आश्चर्य की बात है कि जहाँ प्राचीन पाठ मिलते भी हैं वहाँ भी प्राचीन पाठ या शब्दों को टिप्पण में रखा जाता है और परंपरागत पाठ को ही मूल में रखा जाता है। अतः यह आवश्यक है कि प्राचीनतम पाण्डुलिपियों एवं प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध आगम पाठों के आधार पर आगम की भाषा का निर्धारण करके एक नियमावली या सूची तैयार की जाय जो कि आगम को वास्तविक स्वरूप प्रदान करने में सहायक हो। आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम पाठों को निर्धारित करने के लिए एक सूची बनाई थी जो आज उपलब्ध नहीं है। संभव है कि उनके संग्रह में वह सूची हो। उस सूची को प्राप्त करके तथा भाषा वैज्ञानिक संशोधन के आधार पर नई सूची तैयार हो सके तो भविष्य में शुद्ध संस्करण सुलभ हो पाएगा। नयनचक्र में उद्धत आगमपाठ (१) ३.७ एवं दुवालसंगं गणिपिडगं दव्वतो एगं पुरिसं पडुच्च सादि यं सपज्जवसियं अणेगे पुरिसे पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं। खेत्ततो भरतेखेत्ते पडुच्च सादियं सपज्जवसियं, महाबिदेहे पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं । कालओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ पडुच्च सादियं सपज्जवसियं, णो उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ पडुच्च अणादियं अपज्जवसियं । [ भावओ ] जे जदा जिणपण्णत्ता भावा इत्यादिना सादियं सपज्जवसितमेव [ नन्दि सू० ४२] (२) इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासया असासता ? गोतमा ! सिया सासया सिया असासया ? से केणठेणं भंते ! एवं वुच्च इसिया सासया सिया असासयत्ति ? गोतमा ! दव्वट्ठताए सासता वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसप ज्जवेहिं फासपज्जवेहिं संठाणपज्जवेहिं असासता [ जीवाभि० सू० ३/१/७८ ] (३) ११५.४ आता भंते ! णाणे, अण्णाणे ? गोतमा ! णाणे णियमा आता, आता पुण सिया णाणे सिया अण्णाणे [ भगवती सू० १२/१०/४६८ ] (४) १७९.१० से किं भावपरमाणू ? भावपरमाणू वण्णवंते गंधवंते रसवंते फासवंते [ भगवती सू० २०/५/६०० ] (५) १८३.६ सुत्ता अमुणी सया, मुणीणो सया जागरंति [ आचाराङ्ग १/३/१] (६) १८३.२४ णो सुत्ते सुमिणं पासति, सुत्तजागरियाए वट्टमाणे पासति [भगवती सू० १६/५/५७७ ] (७) १८६.१९ पुवि भंते ! कुक्कुणी पच्छा अंडए ? पुवि अंडए पच्छा कुक्कुणी ? ३६२.१० रोहा जा सा कुक्कुडी सा कतो? अंडगातो ! जे से अंडए से कतो? कुक्कु डीतो। एवं रोहा ! पुवि पि एते पच्छा वि एते, दो वि एते सासता भावा अणाणुपुव्वी एसा रोहत्ति [ भगवती सू० १/६/५३ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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