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________________ जितेन्द्र शाह प्रथम विधि नय के अन्त में आचार्य मल्लवादी ने भगवतीसूत्र का 'आता भन्ते ! णाणे अण्णाणे ? गोतमा ! णाणे नियमा आता, आता पुण सिया णाणे सिया अण्णाणे ।'-यह पाठ उद्धत किया गया है। वर्तमान उपलक्ष्य भगवतीसूत्र में - 'आया भंते ! नाणे अन्नाणे ? णोयमा ! आया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियम आया।'-यह पाठ मिलता है जिसमें पाठ-क्रम में भिन्नता पाई जाती है। आता के स्थान पर आया पद ही प्रसिद्ध हुआ है जिसमें मध्यवर्ती 'त' का लोप हुआ है। संस्कृत आत्मन् शब्द का अशोक के पूर्वी शिलालेखों में एवं पालि सुत्तनिपात में अत्ता शब्द मिलता है, वही शब्द ध्वनिपरिवर्तन के नियमों के अनुसार परवर्ती काल में 'आता' बनता है और भी बाद परवर्ती काल में अर्थात् महाराष्ट्रीय प्राकृत काल में मध्यवर्ती 'त' का लोप होकर 'य' बनता है अर्थात् आता का आया होता है। वर्तमान में आत्मन् के अत्ता, अत्पा, आता, अप्पा, आया शब्द मिलते हैं जो निश्चित ही अलग-अलग काल के हैं अतः यह स्पष्ट है कि आता और आया भी भिन्न काल के हैं। चतुर्थ विधि नियम अर के अन्त में आचारांग का 'जे एगणामे से बहुणामे' (१-३-४ ) यह पाठ उद्ध त है। वर्तमान में 'जे एगं णामे से बहु णामे जे बहुंणामे से एगं णामे'-यह पाठ मिलता है। टीकाकार सिंहभूरि ने स्वभावादि का निरूपण करते हुए यथोक्तं (पृ० २९ ) और 'तथा' कह कर के दो आगमपाठों को उद्ध त किया है-यथा । _ 'किमिदं भंते ! अत्थित्ति वुच्चति ? गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव' एवं 'किमिदं भंते ! समएत्ति वुच्चति ? गोतमा ! जीवा चेव अजीवा चेव ।' किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगम में उपरोक्त पाठ नहीं पाया जाता । यद्यपि मुनि जंबूविजयजी ने दोनों पाठ स्थानांग सूत्र के माने हैं और टिप्पण में वर्तमान स्थानांग सूत्र से तुलना भी की है जैसा कि - जदत्थि णं लोगे तं चेव सव्वं दुपओआरं, तं जहा-जीवच्चेव, अजीवच्चेव... स्थानांगसूत्र २.१.५७.५९ तथा-समयाति वा आवलियाति वा जीवाति वा अजीवाति वा पच्चइ । स्थानांगसूत्र २.४.९५ इस प्रकार अन्य कई पाठ हैं जिनमें पाठ भेद या क्रम भेद पाया जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार एवं टीकाकार के सामने कोई अन्य आगम पाठ या परंपरा मौजूद रही होगी। भाषाकीय दृष्टि से देखा जाय तो नयचक्र एवं टीका में 'य' श्रुति वाले शब्द का प्रयोग अत्यल्प है। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के आधार पर असंयुक्त, अनादि क, ग, च, ज, त,द,प,य, व का प्रायः लोप होता है और लोप होने के बाद शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर य श्रुति होती है जो महाराष्ट्रीय प्राकृत का लक्षण है और ऐसा करने पर भाषा का स्वरूप बदल जाता है एवं रचनाकाल में भी अन्तर मानना पड़ता है । नयचक्र में उद्ध त आगम पाठ में 'य' श्रुति वाले पाठ अल्प ही हैं जैसा कि गौतम शब्द के लिए केवल एक या दो स्थल को छोड़कर सभी जगह पर गोतम शब्द का ही प्रयोग प्राप्त होता है जब कि उपलब्ध आगम में प्रायः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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