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________________ डॉ० के० आर० चन्द्र इस विश्लेषण से प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन में ध्यान में लेने योग्य जो तथ्य मुझे उपलब्ध होते हैं उन्हें निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है : १. हरेक ग्रन्थ के या आवश्यकतानुसार उसके हरेक अध्ययन के पाठों का अलग-अलग __ अध्ययन किया जाना चाहिए। २. ग्रन्थ के रचना-काल के समय की भाषा के स्वरूप को ध्यान में रखा जाना चाहिए। ३. टीका ग्रन्थों या अन्य ग्रन्थों में उद्धृत पाठों पर भी ध्यान देना चाहिए। ४. अधिक से अधिक प्रतों में उपलब्ध समान पाठ ही स्वीकार्य हों, सर्वत्र ऐसा नहीं माना जाना चाहिए। ५. प्राचीनतम प्रत प्रामाणिक हो ऐसा नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि अर्वाचीन प्रत का आधार भी तो कोई प्राचीन प्रत ही रहा होगा। ६. लेहियों या आचार्यों द्वारा प्रचलित भाषा के प्रभाव, सुगमता, सरलता या लिपिभ्रम के कारण मूल पाठ बदल जाने की संभावना को ध्यान में रखना चाहिए। ७. प्राकृत भाषा के वैयाकरणों ने काल की दृष्टि से प्रत्येक प्राकृत भाषा में विकसित रूपों के तुलनात्मक व्याकरण नहीं लिखे हैं और साहित्य में उपलब्ध सभी रूपों का समावेश भी नहीं हुआ है, अतः इस वैज्ञानिक दृष्टि को भी ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ :निम्न शब्द-रूपों पर ध्यान दीजिए। (i) शब्द :-नितिय-निच्च (नित्य), दविय-दव्व (द्रव्य), अगणि-अग्नि (अग्नि), पिच्छ-पिंछ (पृच्छ) (II) प्रत्ययः-नपुं., द्वि. ब. व. आणि-आइं; तृ. से स. ए. व. की विभक्ति (स्त्री)-य, ए,- तृ. ए. व. एण-एणं; तृ. ब. व. हि-हिं; स. ए. व. स्सिं, अंसि, म्हि म्मि. स. ब. व. सु-सुं, वर्तमान कृदन्त मान,-आण; सं-भू, कृ, ऊण, उं इत्यादि। इन सब का काल की दृष्टि से किस प्रकार विकास हुआ यह हमें वैयाकरणों से जानने को नहीं मिलता है।] इस प्रकार का यह विश्लेषणात्मक अध्ययन संभव हो सका इसके लिए मैं सभी पूर्व के सम्पादकों का आभार मानता हूँ जिन्होंने परिश्रमपूर्वक सामग्री जुटाकर आचारांग का सम्पादन किया है। यदि यह बहुविध सामग्री उपलब्ध नहीं होती तो ऐसा अध्ययन ही संभव नहीं था अतः उन सभी सम्पादकों का आभार मानते हुए विनय के साथ कहना चाहिए कि हमारे इस निर्णय को भी अंतिम नहीं माना जाय। विद्वानों से अनुरोध है कि इस संबंध में जो भी आपत्तियाँ, शंकाएँ और प्रश्न उपस्थित हो रहे हों या इस पद्धति में यदि कोई त्रटि हो तो उन पर अवश्य चर्चा की जाय, जिससे आचारांग का ही नहीं, अपितु अन्य आगम-ग्रन्थों का भी पुनः सम्पादन करने में एक नयी दिशा प्राप्त हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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