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________________ की रचना की। पिप्पलगच्छ के हीरानन्दसूरि ने वस्तुपालतेजपालरास (वि० सं० १४८४), विद्याविलासपवाड़ा, कलिकालरास विरचित किये। इनके अतिरिक्त और कई कवियों की रचनायें भी मिलती हैं। इनमें मेहकवि का राणकपुरस्तवन (वि० सं० १४९७), सोमसुन्दरसूरि का नेमिनाथनवरसफाग (सं० १४८१) उल्लेखनीय हैं। दिगम्बर विद्वानों में भट्टारक सकलकीर्ति और ब्रह्मजिनदास की कई रचनाएँ मिलती हैं। इनका कार्य-क्षेत्र बागड़, मेवाड़ और गुजरात था। सकलकीति के सोलहकरणरास, सारसीखामणरास, शान्तिनाथफाग एवं ब्रह्मजिनदास के लगभग ३० से भी अधिक रास मिल चुके हैं। इनमें यशोधररास, धन्यकुमाररास, जीवन्धररास आदि प्रसिद्ध हैं। १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में दिल्ली और पूर्वी राजस्थान में दिगम्बर ग्रंथ लेखन एवं इन्हें चित्रित कराने को परम्परा ने जोर पकड़ा था। रइधू एवं अन्य लेखकों-कवियों की कई रचनायें प्रकाशित हुई हैं । आमेर, चाटसु आदि स्थानों से भो कई ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं। ___ मध्यकाल में राजस्थान में विपुल जैन साहित्य रचा गया। शताधिक जैन कवि एवं ग्रन्थ लेखक इस काल में हुए हैं। इन सबका परिचय देना इस संक्षिप्त भाषण में सम्भव नहीं है। यह राजस्थानी जैन साहित्य का चरमोत्कर्ष काल कहा जा सकता है। १४-१५वीं शताब्दी तक रास काव्य छोटे-छोटे थे किन्तु कालान्तर में मध्यकाल में लम्बी रचनायें होने लगीं। कई रास तो बहुत लम्बे हैं। दोहा एवं लोक गीतों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ है। कभी कभी चौपाई जिसे चतुष्पदी भी कहा गया है, रची गई हैं । बेलि संज्ञक काव्य इस काल में काफी रचे गये हैं। वि० सं० १५०१ में मुनिसुन्दर के शिष्य संघविमल या शुभशील ने २२५ पद्यों में सुदर्शनश्रेष्ठिरास रचा है, जो अपने शीलधर्म के लिए प्रसिद्ध है। कोचरव्यवहारीरास कवि देपाल ने विरचित किया है। सम्यक्त्वरास की रचना संघकलश ने मारवाड़ के तलवाड़ा में रहकर की है। इसका रचना काल सं० १५०५ है। ऋषि ने नल-दमयन्तीरास की रचना वि० सं० १५१२ में चित्तौड़ में की थी। ये अंचलगच्छीय जयकीर्ति के शिष्य थे। कथा का ढंग और वर्ण्य विषय को ठीक ढंग से प्रस्तुत करना इसकी विशेषता है। मतिशेखर इस काल का अच्छा रास लेखक था। इसके द्वारा विरचित धन्नारास (वि० सं० १५१४ पद्य ३२८), मयणरेहारास (१५३७ वि० सं० ३४७ पद्य) एवं नेमिनाथफुलड़ाफाग (गाथा १०८), करकंडुमहर्षिरास सं० १५३६, इलापुत्रचरित्र (गाथा १६७) एवं नेमिगोत प्रमुख हैं। यह उपकेशगच्छ का था एवं लम्बे समय तक मेवाड़ में रहा । जिनवर्द्धनसूरि के शिष्य आज्ञासुन्दर ने वि० सं० १५१६ में विद्याविलासचौपाई ३६३ पद्यों में बनाई। कीर्तिरत्नसूरि से सम्बन्धित विवाहला उनके शिष्य कल्याण चन्द्र ने ५४ पद्यों में बनाई। खरतरगच्छ के राजशील ने वि० सं० १४६८ में विक्रमचरितचौपाई की रचना की। राजशील चित्तौड़ में थे। इनका वहाँ के एक शिलालेख में भी वर्णन मिलता है । वाचक धर्मसमुद्र ने सुमित्रकुमाररास वि० सं० १५६७ में जालौर में ३३७ पद्यों में बनाया। इसी काल में सहजसुन्दर हुए जिनके द्वारा विरचित ऋषिदत्तारास, परदेशीराजारास आदि मिले हैं। लघुजातक के रचयिता खरतरगच्छ के मतिलाभ बीकानेर में लम्बे समय तक रहे थे। पार्श्वचन्द्रसूरि जो अपनो गच्छ परम्परा के लिए प्रसिद्ध हैं, नागौर, बीकानेर, सिरोही आदि क्षेत्रों में खब विचरे हैं। इनकी सिद्धान्त विषयक कई रचनाएँ मिलती हैं। ( 44 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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