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________________ जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान १८३ आहार को परिभाषा श्रावक या मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण अनेक कारकों से होता है : परम्परा, संस्कार, मनोविज्ञान, परिवेश, समाज, आहार-विहार आदि। इनमें आहार प्रमुख है। "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन", "जैसा पीवे पानी, वैसी बोले बानी" आदि लोकोक्तियाँ इसी तथ्य को प्रकट करती हैं । यद्यपि ये देशकाल सापेक्ष हैं, फिर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।' धार्मिक दृष्टि से पल्लवित कर्मवाद के अनुसार आहार शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान एवं संहनन नामकर्म के उदय में निमित्त होता है। यह शरीरान्तर ग्रहण करने हेतु एकाधिक समय की विग्रहगति में भी होता है। वस्तुतः आहार शब्द की अवधारणा हैं आ --समन्तात-चारों ओर या परिवेश से, हरति-गृह्णाति-ग्रहण किये जाने वाले द्रव्यों के आधार पर स्थापित है। पूज्यपाद और अकलंक ने तीन स्थूल शरीर और उनको चालित करने वाली ऊर्जाओं ( सात पर्याप्तियों) के निर्माण के लिए कारणभूत पुद्गल वर्ग ल, द्रव, गैस व ठोस द्रव्य ) के अन्तर्ग्रहण को आहार कहा है। फलतः वर्तमान में आहार या भोजन के रूप में ग्रहण किये जाने वाले सभी द्रव्य तो आहार हैं ही। इसके अतिरिक्त, जैनमत के अनुसार, ज्ञान, दर्शन आदि कर्म और हास्य, दुःख, शोक, मन, घृणा, लिंग, इच्छा, अनिच्छा आदि नोकर्म भी ऊर्जात्मक सूक्ष्म द्रव्य हैं । अतः इनका भी परिवेश से अनाग्रहण आहार कहलाता है। इस दृष्टि से जैनों की 'आहार' शब्द की परिभाषा, आज की वैज्ञानिक परिभाषा से, पर्याप्त व्यापक मानना चाहिये। इसमें भौतिक द्रव्यों के साथ भावनात्मक तत्त्वों का अन्तर्ग्रहण भी समाहित किया गया है। इसलिए आहार के शारीरिक प्रभावों के साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी, जैन शास्त्रों में प्राचीनकाल से ही माने जाते रहे हैं । आहार विशेषज्ञों ने आहार के भावनात्मक प्रभावों से सह-संबंधन की पुष्टि पिछली सदी के अन्तिम दशक में ही कर पाये हैं। आहार की आवश्यकता लाभ या उपयोग : वैज्ञानिक परिभाषा जैन आचार्यों ने प्राणियों के लिये आहार की आवश्यकता प्रतिपादित करने हेतु अपने निरीक्षणों को निरूपित किया है। उत्तराध्ययन में बताया है कि आहार के अभाव में शरीर का जंघा तृण के समान दुर्बल हो जाता है, धमनियां स्पष्ट नजर आने लगती हैं। भूखे रहने पर प्राणी की क्रिया क्षमता घट जाती है । मूलाचार के आचार्य ने देखा कि आहार की आवश्यकता दो कारणों से होती है : (i) भौतिक और ( ii ) आध्यात्मिक । वस्तुतः भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति से ही आध्यात्मिक लक्ष्य सधता है, "शरीरमाद्यम् खलु धर्म साधनं"। इन्हें निम्न प्रकार सारिणीबद्ध किया जा सकता है१. जैन, डा० नेमीचंद्र (सं०); तीर्थंकर, जनवरी १९८७ २. भट, अकलंकः तत्त्वार्थ राजवातिक, खं० २, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५७, पृ० ५७६ ३. वही; खण्ड १, पृ० १४० ४. उत्तराध्ययन, मन्मति ज्ञानपीट, आगरा १९७२, पृ० ११ ५. आचार्य वट्टके र; मूलाचार, भारतीय ज्ञानपीठ १९८४, पृ० ३६९-७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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