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________________ ૧૮૨ प्रो० नन्दलाल जैन देशों को अमृत चन्दसूरि' तक ने निग्रहस्थानी माना है । फिर भी, कुन्दकुंद ने चरित्रप्राभृत में ६ गाथाओं में श्रावकों के चारित्र का ११ प्रतिमाओं और १२ व्रतों के रूप में उल्लेख किया है । उसमें कुछ परिवर्धन करते हुए उमास्वामी ' ने तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के १८ सूत्रों में इसका वर्णन किया है । आचार्य समंतभद्र ने 'न धर्मो धार्मिक विना' के आधार पर श्रावक पर सर्वप्रथम ग्रन्थ 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार लिखा । उसके बाद अनेक आचार्यों ने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं । इन ग्रंथों की तुलना में साधु आचार पर कम ही ग्रन्थ लिखे गये हैं ( सारिणी १ ) । मूलाचार और भगवती आराधना के बाद ४ सारिणी १ श्रावकाचार के प्रमुख जैन ग्रन्थ क्रमांक १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८ ९. १०. ११. १२. आचार्य कुन्दकुंद उमास्वामी समन्तभद्र आचार्य जिनसेन सोमदेव अमृतचन्द्रसूरि अमितगति-२ Jain Education International वसुनन्दि पद्मनन्दि पं० आशाधर पं० दौलतराम कासलीवाल आ० कुंथूसागर समय १- २री सदी २- ३री सदी ५वीं सदी ८वीं सदी १०वीं सदी १०वीं सदी १०-११वीं सदी ११वीं सदी ११वीं सदी १२- १३वीं सदी १६९२-१७७२ २०वीं सदी ग्रन्थनाम चारित्रप्राभृत तत्त्वार्थ सूत्र रत्नकरंड श्रावकाचार आदिपुराण उपासकाध्ययन पुरुषार्थसिद्धयुपाय अमितगतिश्रावकाचार For Private & Personal Use Only वसुनन्दिश्रावकाचार पद्मनन्दिपंचविंशतिका १३ वीं सदी का अनगार धर्मामृत ही आता है । इससे यह स्पष्ट है कि विभिन्न युगों के आचार्यों ने श्रावकों के आचार की महत्ता स्वीकार की है | श्रावक वर्ग न केवल साधुओं का भौतिक दृष्टि से संरक्षक है, अपितु वही श्रमणवर्ग का आधार है क्योंकि उत्तम श्रावक ही उत्तम साधु बनते हैं । श्रावक श्रमणधर्म की प्रतिष्ठा के प्रहरी एवं रक्षक हैं । वर्तमान श्रावक भूतकालीन परम्परा से अनुप्राणित होता है और भविष्य की परम्परा को विकसित करता है ।" अतः आचार्यों ने उनके विषय में ध्यान दिया, यह न केवल महत्त्वपूर्ण है, अपितु प्रशंसनीय भी है । सागारधर्मामृत जैनक्रिया कोष श्रावकधर्म प्रदीप १. शास्त्री, पं० कैलाशचंद्र, सागार धर्मामृत (सं०), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७८, पृ० ४० २. कुरूंदकुद, अष्टपाहुड, दि० जैन संस्थान, महावीर जी, १९६७, पृ० ६९-७७ ३. उमास्वामी; तत्त्वार्थ सूत्र, वर्णी ग्रन्थ माला, काशी, १९४९, पृ० ३३७-५८ ४. समन्तभद्र रत्नकरंड श्रावकाचार, एस० एल० जैन ट्रस्ट, भेलसा, १९५१ ५. जैन, डा० सागरमल; श्रावक धर्म की प्रासंगिकता का प्रश्न, पा० वि०, १९८३, पृ० १२ www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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