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________________ गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन वाली निष्ठा योगबुद्धि है। समयसार में ज्ञाननिष्ठा का निश्चय की दृष्टि से और कर्म निष्ठा का व्यवहार की दृष्टि से निरूपण है। शङ्कर के अनुसार ज्ञान और कर्म इन दोनों का जहाँ एक पुरुष में होना असम्भव है, वहाँ जैन दर्शन के अनुसार इन दोनों का एक ही पुरुष में होना सर्वथा असम्भव नहीं है, कथंचित् सम्भव है। गीता के अनुसार शरीरधारी आत्मा की इस वर्तमान शरीर में जैसे कौमार-बाल्यावस्था यौवन-तरुणावस्था और जरा-वृद्धावस्था ये परस्पर विलक्षण तीन अवस्थायें होती हैं, वैसे ही आत्मा को देहान्तर की प्राप्ति अर्थात् इस शरीर से दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान् पुरुष इस विषय में मोहित नहीं होता। मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयों को जिनसे जानी जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयों के साथ उनके संयोग शीत-उष्ण और सुख दुःख देने वाले हैं। शीत कभी सुख रूप होता है, कभी दुःख रूप, इसी तरह उष्ण भी अनिश्चित रूप है, परन्तु सुख और दुःख निश्चित रूप हैं, क्योंकि उनमें व्यभिचार नहीं होता। इसलिए सुख-दुःख से अलग शीत और उष्ण का ग्रहण किया गया है। चंकि वे मात्रा-स्पर्शादि (इन्द्रियाँ और उनके संयोग ) उत्पत्ति और विनाशशील हैं, इसलिए अनित्य हैं । अतः उन शीतोष्णादि को तू सहन कर । सुख और दुःख को समान समझने वाले अर्थात् जिसकी दृष्टि में सुख-दुःख समान हैं, ऐसे धीर बुद्धिमान् पुरुष को ये शीतोष्णादि विचलित नहीं कर सकते। जैन दर्शन गीता के उपर्युक्त कथन से पूर्ण सहमत है। प्रवचनसार में श्रमण का लक्षण करते हुए कहा गया है समसत्तुबन्धुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो॥४१॥ अर्थात् जिसे शत्रु और मित्रों का समूह एक समान हो, सुख और दुःख एक समान हों, प्रशंसा और निन्दा एक समान हों, पत्थर के ढेले और सुवर्ण एक समान हों तथा जो जीवन और मरण में समभाव वाला हो, वह श्रमण अर्थात् साधु है। गीता में इस समत्व की भावना का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन किया गया है सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥ २/३८ १. ज्ञानकर्मणोः कर्तृत्वाकर्तृत्वैकत्वानेकत्वबुद्ध्याश्रययोः एकपूरुषाश्रयत्वासंभवं पश्यता । गीता-शाङ्करभाष्य २०१० २. देहिनोस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्ति/रस्तत्र न मुह्यति ।। गीता २।१३ ३. मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ २॥१४ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुष पूरुषर्षभ । समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ गीता २०१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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