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________________ गीता, उसका शांकरभाष्य और जैन-दर्शन डा० रमेशचन्द जैन गीता हिन्दू परम्परा के अनुसार श्रीकृष्ण की वाणी कही जाती है। जैन दर्शन का मूल स्रोत साक्षात् तीर्थंकर भगवान् की बाणी है । गीता के भाष्यकर्ता शङ्कराचार्य भारत की प्रवृत्ति विचारधारा की अपेक्षा निवृत्ति विचारधारा से अधिक प्रभावित रहे, अतः गीता तथा उसके शाङ्करभाष्य का जैन परिप्रेक्ष्य में यहाँ अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है । शङ्कराचार्य के अनुसार पुण्य-पाप दोनों बढ़ते रहने के कारण अच्छे-बुरे जन्म और सुख दुःखों की प्राप्ति रूप संसार निवृत्ति नहीं हो पाती ।' आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार के पुण्यपापाधिकार में इसे बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया है । वे कहते हैं अशुभ कर्म को कुशील और शुभकर्म को सुशील जानो, परन्तु जो जीव को संसार में प्रवेश कराता है, वह सुशील कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है और सुवर्ण की भी बेड़ी बाँधती है, इसी प्रकार किया हुआ शुभ अथवा अशुभ कर्म जीव को बाँधता है । अतः दोनों कुशील से राग मत करो अथवा संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के संसर्ग और राग से स्वाधीनता का विनाश होता है । २ शाङ्करभाष्य में शोक और मोह को संसार का बीज कहा गया है । ' आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में मोह और क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को साम्यभाव कहा है तथा उनके मत में साम्यभाव ही धर्म है । धर्म मोक्ष का बीज है । गीता का सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञान की प्राप्ति " ही समयसार की परमार्थप्राप्ति है । जो मनुष्य परमार्थ से बाह्य हैं । वे व्रत और नियमों को धारण करते हुए तथा शील और तप को करते हुए भी मोक्ष नहीं पाते । परमार्थ रूप जीव ही शुद्ध, केवली, मुनि, ज्ञानी आदि नाम पाता है, उसी का निर्वाण होता है । " गीता में ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा का अलग-अलग वर्णन है । आत्मा में जन्मादि छह विकारों का अभाव होने के कारण आत्मा अकर्ता है । यह सांख्यबुद्धि है । कर्मयोग से होने १. तत्र एवं सति धर्माधर्मापचयाद् इष्टानिष्टजन्मसुखदुःखप्राप्तिलक्षणः संसारः अनुपरतो भवति । गीता - शाङ्करभाष्य २०१० २. समयसार - १४५ - १४७ ३. संसारबीजभूतो शोकमोहौ —– गीता शाङ्कभाष्य २।१० ४. प्रवचनसार-७ ५. तयोः च सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकाद् आत्मज्ञानात् न अन्यतो निवृत्तिः ॥ गीता - शाङ्करभाष्य २।१० ६. समयसार - १५३ ७. समयसार - १५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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