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________________ शांता संचार तंत्र के माध्यम से नाड़ी तंत्र के सहयोग से अन्तर्भाव, चिन्तन, वाणी, आचार और व्यवहार को संचालित और नियन्त्रित करते हैं । इस प्रकार चेतना के तीन स्तर बन गए - : जो अति सूक्ष्म शरीर के साथ काम करता है । : जो विद्युत शरीर- तैजस शरीर के साथ काम करता है । : जो स्थूल शरीर के साथ काम करता है ।" १. अध्यवसाय का स्तर २. लेश्या का स्तर ३. स्थूल चेतना का स्तर सूक्ष्म जगत् में सम्पूर्ण ज्ञान का साधन अध्यवसाय है स्थूल जगत् में ज्ञान का साधन मन और मस्तिष्क को माना है । मन मनुष्य में होता है, विकसित प्राणियों में होता है, जिनके सुषुम्ना है, मस्तिष्क है पर अध्यवसाय सब प्राणियों में होता है । वनस्पति जीव में भी होता है । कर्मबन्ध का कारण अध्यवसाय है । असंज्ञी जीव मनशून्य, वचनशून्य और क्रियाशून्य होते हैं फिर भी उनके अठारह पापों का बन्ध सतत होता रहता है, क्योंकि उनके भीतर अविरति है, अध्यवसाय है । लेश्या बिना स्नायविक योग के क्रियाशील रहती है । इसलिये लेश्या का बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूप समझकर व्यक्तित्व का रूपान्तरण करना होता है । लेश्या के दो भेद हैं-- द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या पुद्गलात्मक होती है और भाव लेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है । मन के परिणाम शुद्ध-अशुद्ध दोनों होते हैं और उनके निमित्त भी शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । निमित्त को द्रव्य लेश्या और मन के परिणाम को भाव लेश्या कहा है । इसीलिये लेश्या शुद्धि के भी दो कारण बतलाये हैं-निमित्त कारण और उपादान कारण । उपादान कारण है - कषाय की तीव्रता और मन्दता । निमित्त कारण है पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण । दूसरे शब्दों में लेश्या का बाहरी पक्ष है योग, भीतरी पक्ष है कषाय । मन, वचन, काया की प्रवृत्ति द्वारा पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण होता है । जिसमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सभी होते हैं । वर्ण/रंग का मन पर सीधा प्रभाव पड़ता है । रंगों की विविधता के आधार पर मनुष्य के भाव, विचार और कर्म सम्पादित होते हैं । इसलिये रंग के आधार पर लेश्या के छः प्रकार बतलाए गये हैं १. कृष्ण लेश्या, २. नील लेश्या, ३. कापोत लेश्या, ४ तैजस लेश्या, ५. पद्म लेश्या और ६. शुक्ल लेश्या । * कृष्ण लेश्या वाले प्राणी में काले रंग की प्रधानता होती है । उसका दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता । उसमें प्रबल आकांक्षा होती है । प्रमाद अधिक होता है । शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं पर उसका नियन्त्रण नहीं होता है । स्वभाव से वह हिंसक, क्रूर; प्रकृति सेक्षुद्र बना रहता है। बिना सोचे-समझे काम करना, इन्द्रियों पर विजय न पाना उसकी पहचान बन जाती है । १. आभामण्डल - युवाचार्य महाप्रज्ञ पृ० १३, ४१ २. सूत्रकृतांग ४ / १७ ३. भगवतीसूत्र १२/५/१६ ४. भगवतीसूत्र १९/१/१; स्थानांग ६/५०४; प्रज्ञापना १७ /४/३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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