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________________ जैन दर्शन में मन विक्षिप्त--जो मन इधर-उधर विचरता रहता है अर्थात् किसी एक विषय पर निश्चल नहीं रहता, वह विक्षिप्त मन है। इस अवस्था में भीतर की ओर झाँकने की भावना जागृत होती है और इस अवस्था में लगता है कि मन बहुत चंचल है । यह स्थिरता की ओर बढ़ने का प्रथम चरण है। यातायात-जो मन कभी अन्तर्मुखी बनता है, कभी बहिर्मुखी उसे यातायात मन कहते हैं। श्लिष्ट-ध्येय में स्थिर हुए मन को श्लिष्ट कहते हैं। पर यहाँ भी ध्याता और ध्येय में पूर्ण एकात्मकता नहीं है। सुलीन-जो मन ध्येय में सुस्थिर हो जाता है, उसे सुलीन मन कहते हैं । ध्याता, ध्येय में अपना अस्तित्व भुला देता है। फिर भी यहाँ मन की गति समाप्त नहीं होती, क्योंकि उसे ध्येय की पूर्ण स्मृति बनी रहती है। निरुद्ध-जो मन बाह्य आलम्बन से शून्य हो केवल आत्मपरिणत हो जाता है, वह निरुद्ध मन है। यहाँ पर ध्येय की स्मृति भी समाप्त हो जाती है। तथा इन्द्रिय और मन की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है।' मनोनिरोध के उपाय-उत्तराध्ययन में केशी और गौतम के संवाद से मन को वश में करने का जो उपाय दिया गया है वह है श्रुत। धर्म शिक्षा के द्वारा मन शान्त हो जाता है। मनोनुशासनम् में मनोनिग्रह के कुछ बाहरी व कुछ आंतरिक उपाय बताये गये हैं। जब चैतन्य का प्रवाह अन्तर्मुखी होता है तब कल्पनाएँ और स्मृतियाँ स्वतः निरुद्ध हो जाती हैं। आत्मज्ञान की निर्मलता ही वैराग्य का रूप लेती है। मन के निरोध का एक दूसरा हेतु श्रद्धा का प्रकर्ष है । श्रद्धा के प्रकर्ष से भी मानसिक एकाग्रता सधती है। ये ही उपाय पातंजल योगदर्शन में भी बताये गये हैं। भगवान् बुद्ध ने भी मन के नियंत्रण पर बल दिया है। उन्होंने कहा है कि मन नियंत्रण में आ जाय तो सभी विषयों से मन को हटाना आवश्यक नहीं है। जहाँ-जहाँ पाप है वहाँ-वहाँ से मन को हटाना है। __ मनोनिरोध के बाह्य उपाय इस प्रकार हैं शिथिलीकरण-काया की शिथिलता मनोनिरोध का सुन्दर उपाय है । काया की चंचलता ही मन को बढ़ाती है। शरीर की शिथिलता संकल्प और श्वास पर निर्भर है। अतः जितनी संकल्प और श्वास की शिथिलता होगी, मन का निरोध भी सहज हो जायेगा। ध्यान-ध्यान में मन को किसी विषय पर नियोजित करके मन की चंचलता को कम किया जाता है। उत्तराध्ययन में भी प्रतिपादित किया गया है कि एकाग्रसन्निवेष से चित्त का निरोध होता है। इससे संकल्प-विकल्प का प्रवाह टूट जाता है। । इस प्रकार जैन दर्शन में मन के अर्थ से लेकर मनोनिरोध तक की पूरी पद्धति बताई गई है। १. मनोनुशासनम् प्रकरण २, पृ० ३३-३८ २. उत्तराध्ययन सूत्र २३/५५-५८ ३. पातंजल योगदर्शन I, १२-१६ ४. संयुक्त निकाय यतो-यतो प्रमुच्चति १/१/२४ न सव्वतो."निवारये १/१/२५ ५. उत्तराध्ययन २९/२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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