SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बच्छराज दूगड़ प्रकार शेष इन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है वैसा मन का नहीं होता। अतः मन अनीन्द्रिय है।' अनीन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय सदृश है। मन का अधिकारी कौन -मन के व्यक्त चेतनत्व की दृष्टि से गर्भज पंचेन्द्रिय प्राणी ही अधिकारी है। पर संज्ञीश्रुत की अपेक्षा से इत प्राणी भी उसके अधिकारी हैं। हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीव बिना ईहा अपोह के भी ईष्ट की ओर प्रवृत्ति करते हैं और अनिष्ट से निवृत्ति करते हैं । दीर्घकालिकी संज्ञा वाले जीव ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा आदि के सहारे वस्तु के विषय में त्रैकालिक आलोचनात्मक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। सम्यग्दृष्टि संज्ञा वाले जीवों में ही मानसिक ज्ञान का यथार्थ और पूर्ण विकास होता है। मन की विविध अवस्थाएँ-जैन दर्शन के ग्रंथों में मन की अवस्थाओं का वर्णन बहुत कम उपलब्ध होता है पर जैन योग ग्रंथों में मन की विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद, योगीदुदेव, शुभचंद्र आदि ने अपने ग्रंथ क्रमशः मोक्षप्राभृत, समाधितंत्र, परमात्मप्रकाश और ज्ञानार्णव में मन के प्रकारों की चर्चा की है। इनमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की चर्चा विस्तार से हुई है। बहिरात्मा मन की वह स्थिति है जिसकी विद्यमानता से व्यक्ति अपने भीतर कुछ भी सार या तत्त्व की अनुभूति नहीं करता। उसे बाह्य पदार्थों में ही सार लगता है। अन्तरात्मा मन की स्थिति में वह अपने भीतर में सार देखने लगता है। वह अपने भीतर सुख आनन्द, शक्ति चैतन्य को बहते हए देखता है। परमात्मा विशुद्ध चैतन्य की स्थिति है वहाँ मन का कोई संबंध नहीं अर्थात् वहाँ मन नहीं होता। स्थानांगसूत्र में मन के प्रकार एवं मन की अवस्थाओं का निरूपण हुआ है । वहाँ मन के तीन प्रकार बताये हैं-(१) तन्मन-लक्ष्य में लगा हुआ मन, (२) तदन्यमन-अलक्ष्य में लगा हुआ मन, (३) नो-अमनमन का लक्ष्य हीन व्यापार । यहां मन की तीन अवस्थाएं भी प्रतिपादित की गई हैं। (१) सुमनस्कता-मानसिक प्रसन्नता, (२) दुर्मनस्कता-मानसिक विषाद, (३) नो मनस्कता और नो-दर्मनस्कता-मानसिक उपेक्षा भाव या तटस्थता।२ आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में अपने स्वानुभव की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम मन की अवस्थाओं का निरूपण किया है। विक्षिप्तमन यातायात मन, श्लिष्ट मन और सुलीन मन । यहाँ हेमचन्द्राचार्य पर पतंजलि प्रणीत योगदर्शन पर लिखे व्यास भाष्य का प्रभाव परिलक्षित होता है । व्यास ने प्रथम सूत्र की व्याख्या में ही मन के भेदों का इस प्रकार निरूपण किया हैक्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । उपर्युक्त दोनों विचारधाराओं को समझकर आचार्य श्री तुलसी ने अपने ग्रन्थ मनोनुशासनम् में इन अवस्थाओं का निरूपण किया है । मूढ, विक्षिप्त यातायात, श्लिष्ट, सुलीन और निरुद्ध । मूढ़-जो मन मिथ्या दष्टि और मिथ्या आचार में परिव्याप्त होता है, उसे मूढ़ कहते हैं। इस अवस्था में मोह प्रबल होता है और मन केवल बाह्य जगत् और परिस्थिति का ही प्रतिबिम्ब लेता रहता है । इस मन में किसी एकविषय पर स्थिर रहने की योग्यता नहीं होती। १. धवला १/१/१, ३५/२६०/५ २. स्थानांगसूत्र-३/३५७, १८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy