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________________ डा. कृपाशंकर व्यास में समर्थ नहीं हैं। सभी प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों का फल सुखद ही चाहते हैं। अतः वे स्वयं अपने कर्मों के सुख दुःखात्मक फलों को निष्पक्षता से ग्रहण नहीं करेंगे। इस कारण से भी फल प्रदाता के रूप में निष्पक्ष ईश्वर की अपेक्षा की जाती है। इस मान्यता के संबंध में पूर्व में ही कथन कर दिया गया है कि कर्म की उत्पत्ति चैतन्य के द्वारा ही अतः जीव के संबंध के कारण ही कर्म में ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है जिससे कर्म अपने सुखद व दुःखद विपाकों को यथासमय जीव के प्रति प्रकट कर देता है। कर्मवाद पर आस्था रखने वाले कर्म को पूर्णतया जड़ नहीं मानते। कारण कि जीव (चैतन्य) की क्रिया के द्वारा उत्पन्न कर्म (संस्कार), क्रिया के समाप्त हो जाने पर भी जीवाश्रित बने रहते हैं। ये संस्कार चूंकि द्रव्य से उत्पन्न होते हैं अतः इन्हें दव्य कर्म कहते हैं तथापि वे जीवाश्रित शक्ति रूप होने से जीव द्वारा अवश्यमेव भोक्तव्य हैं। विशिष्ट ज्ञानयक्त जीव निष्पक्ष होकर स्वकृत कर्मों को निर्लिप्त भाव से भोगता है जबकि सामान्य ज्ञानयुक्त जीव तत्काल सुखद-परिणामतः और दुःखद बाह्य पदार्थों के भोगानुभव को एकत्रित करते हैं फलतः उसके अनुरूप ही उसकी बुद्धि हो जाती है । इस बुद्धि के द्वारा इच्छा न रहते हुये भी जीव को स्वकृत कर्मों का अशुभ फल भोगना ही पड़ता है । सर्वदर्शन' संग्रह में वीतराग स्तुति में प्रयुक्त 'स्ववशः' विशेषण यदि ईश्वर का माना जाये तो ईश्वर अपनी कारुणिकता के कारण सभी प्राणियों को सुखी बनायेगा, दुःखी नहीं। ईश्वर यदि प्राणियों के कृतकों से प्रेरित हो प्राणियों को सुखी या दुःखी बनाता है तो ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति एवं स्वतंत्रता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। कर्म की अपेक्षा रखने पर ईश्वर का सर्वेश्वरत्व सिद्ध नहीं होता है कारण कि कर्मों को ईश्वर नियंत्रित नहीं कर पायेगा । जीव स्वयं के कर्मों के अनुरूप ही सृष्टि करने एवं तदनुरूप फल भोगने में स्वतंत्र है। जीव और कर्मों का संबंध :-उपर्युक्तविवेचन से स्पष्ट है कि इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर जगत की सष्टि में यदच्छा, माया. भ्रम, प्रकृति आदि भी कारण नहीं हैं।२ जीब ही इस सृष्टि का कर्ता एवं स्वकृत कर्मों के फल का भोक्ता है। जीव और कर्मों का संबंध अनादि है । कर्मों के कारण ही सकषाय जीव सृष्टि का कारण बनाता है। कर्मों के निरोध के फलस्वरूप कर्मों का अभाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है, फिर भी यह सृष्टि अन्यों (जीवों) के बनी रहती है। जैन दर्शन और ईश्वर --कालान्तर में वैदिक साहित्य द्वारा प्रतिपादित कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड सामान्य वर्ग के लिये सहज गम्य एवं प्राप्य न रहा और परिणामतः ६ठी ईसापूर्व में इस अबोधगम्यता की प्रतिक्रिया स्वरूप वैचारिक परिवर्तन आया । इस परिवर्तन की विशेषता यह थी कि जीवन के रहस्य को जानने के लिये किसी ज्ञान विशेष की आवश्यकता पर बल नहीं १. कर्ताऽस्ति कच्चिज्जगतः स चैकः, स सर्वज्ञ. स स्ववशः स नित्यः । (सर्वदर्शन संग्रह-आर्हत दर्शन) २. (अ) श्लोक वा० सम्बन्धा १०९-११४ (ब) तत्त्वार्थसूत्र (सर्वार्थ) ९७ (स) तत्त्वार्थसूत्र-८।३, ८२ ३ (अ) संस्कृति के चार अध्याय-दिनकर पृ० ८१-९५, १०० -१२१ (व) भारतीन ईश्वरवाद---पं० शर्मा २८४-३२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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