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________________ जैनधर्म में ईश्वर विषयक मान्यता का अनुचिन्तन ७१ स्वतंत्रता ही सिद्ध होती है । इसी प्रकार यदृच्छावाद के कारण निमित्त के बिना भी कार्य की प्राप्ति होने लगेगी, परिणामस्वरूप 'कारण कार्यवाद' सिद्धान्त पर प्रश्नचिह्न लग जायेगा तथा सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी। कोई भी कार्य नियमानुसार न होगा। जबकि दृश्य जगत् में सभी कार्य नियमानुसार ही दिखलायी देते हैं-यथा अग्नि का उष्ण होना, आम के वृक्ष से आम की प्राप्ति आदि । अतः सृष्टि में कारणभूत माने गये यदृच्छावाद और ईश्वर को स्वीकार नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन द्वारा ईश्वर के स्रष्टा-रूप का खंडन :-न्यायादि' दर्शनों के पुरस्कर्ता घटादि कार्यों के कर्ता रूप में जिस प्रकार कुम्भकार आदि को स्वीकारते हैं उसी प्रकार जगत् रूप कार्य को देखकर उसके कर्ता रूप में ईश्वर को भी स्वीकारते हैं। जगत् रूपी कार्य जड़ परमाणुओं को गतिशील बनाये बिना संभव नहीं है। इसके लिये ईश्वर की इच्छा तथा प्रेरणा आवश्यक है। जड़ परमाणुओं में गतिशीलता होने पर ही सृष्टि संभव है और गतिशीलता के लिये ईश्वर का कारण होना अनिवार्य है । जैन दर्शन जगत् को किसी का कार्य नहीं मानता है। उसके मतानुसार अजीव तत्त्व जगत् भी जीव के समान ही नित्य है। नैयायिकों के इस कथन से कि पृथ्वी आदि के अवयवभूत परमाणु जगत् के समवायी कारण हैं, अतः पृथिव्यादि के सावयव होने के कारण कार्यत्व की सिद्धि हो जाती है। इस मत से जैन आचार्य सहमत नहीं हैं। उन्होंने अनेक विकल्पों तथा तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी आदि कार्य नहीं हैं । अतः इनके कर्ता के रूप में 'ईश्वर' की सिद्धि संभव नहीं है। जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि कर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार कर भी लिया जाये तो पूनः प्रश्न यह उपस्थित होता है कि कर्ता एक है या अनेक । यदि कर्ता एक माना जाये तो यह मान्यता अनुचित है, कारण कि विचित्र जगत् के निर्माण में महल आदि के निर्माण के समान अनेक कर्ताओं की आवश्यकता होगी। एक कर्ता के द्वारा विचित्र विश्व का निर्माण संभव नहीं है। यदि ईश्वरवादी जगत् सृष्टि के लिये अनेक कर्ताओं को स्वीकार करते हैं तो उनमें परस्पर मतभेद की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता । एक वस्तु के भिन्न-भिन्न रूप हो जायेंगे फलतः सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी। इस प्रकार जैन दर्शन जीव और अजीव के संयोग से होने वाली सृष्टि में ईश्वर की कारण रूपता का खंडन करके जीवों के कर्मों को ही सृष्टि में साधकतम कारण मानता है। जैन दर्शन उस मान्यता को भी निराधार एवं काल्पनिक सिद्ध करता है जिसके अनुसार जड और चेतन का संबंध कर्मानुसारी नहीं होता। जैन दर्शन में फल प्रदाता ईश्वर का खण्डनः-कतिपय' चिन्तकों के मतानुसार ईश्वर फल प्रदाता है। कर्म चूंकि जड़ हैं अतः कर्म चेतना की प्रेरणा के बिना कथमपि फल देने १. (अ) सर्वदर्शन संग्रह-(आर्हत दर्शन) (ब) षड्दर्शन समुच्चय-पृ० १६६-१८७ २. षड्दर्शन समुच्चय पृ० १८२-१८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
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