SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पउमचरियं के हिन्दी अनुवाद में कतिपय त्रुटियाँ ४९ आ पहुँचा है । इस अनुवाद को पढ़ने पर ऐसा नहीं लगता कि खरदूषण का वध हो चुका है क्योंकि 'आ पहुँचा है' यह उल्लेख सूचित करता है कि अभी विराधित लक्ष्मण से मिला ही है, इस मिलन के अनन्तर घटने वाला वृत्तान्त अर्थात् खरदूषण का वध नहीं हुआ है। यहाँ है, क्रिया भ्रम उत्पन्न करती है, उसके स्थान पर 'था' होना चाहिये। प्रथम गाथा को इस प्रकार समझें । अन्वय-बन्धवसिणेहं वहमाणो विराहिओ लक्खणस्स सुहकम्मपहावेण संगामे सिग्धं समणुपत्तो । अर्थात् लक्ष्मण के शुभकर्म के प्रभाव से संग्राम में बान्धवस्नेह को धारण करता हुआ विराधित शीघ्र आ पहुंचा था। . इस अर्थ में यह ध्वनि है कि लक्ष्मण के शुभ कर्मों का उदय हो गया था कि खरदूषण के युद्ध में उनकी सहायता के लिये विराधित आ गया। नहीं तो वे क्या खरदूषण का वध कर लेते! द्वितीय गाथा में 'काहिन्ति ताणं पक्खवायं' का अर्थ 'उसका पक्षपात करते हैं' असंगत है। 'ताणं 'बहुवचन है और 'काहिन्ति' भविष्यत्कालिक क्रिया है। अतः कथा-सूत्र को सुरक्षित रखने के लिये यह अर्थ होगा उनका (अर्थात् राम और लक्ष्मण का) पक्षपात करेंगे। अभी सुग्रीवादि से राम का परिचय ही नहीं हुआ है। आगे सुग्रीवाख्यान पर्व आने वाला है । अतः भविष्यत्कालिक क्रिया के स्थान पर वर्तमानकालिक क्रिया रख देने पर कथा सूत्र में विसंगति उत्पन्न हो जायेगी। हनुमत्प्रस्थान पर्व की इस गाथा का भी अर्थ ठीक नहीं है तत्तो सो सिरि भूई संपत्तो सिरिपुरं रयणचित्तं । पविसइ हणुयस्स सहा तावन्तं पेच्छई दूयं ॥ ४९।१ अर्थ-"तब वह सिरिभूति रत्नों से विचित्र ऐसे श्रीपुर में पहुँचा और हनुमान की सभा में प्रवेश किया।" इस अर्थ में 'तावन्तं पेच्छई दूयं' को छोड़ ही दिया गया है। इस गाथा को समझने के लिये पहले इस प्रकार अन्वय करना होगा तत्तो सो संपत्तो सिरि भूई रयणचित्तं सिरिपुरं पविसइ, ताव हणयस्स सहा एन्तं दूयं पेच्छइ। अर्थात् इसके पश्चात् वह आया हुआ (सम्प्राप्त) श्रीभूति रत्नों से विचित्र श्रीपुर में प्रवेश करता है । तब हनुमान की सभा आते हुये दूत को देखती है। यहाँ वर्तमान भूतार्थक है। यह अर्थ करने पर स्पष्ट प्रथमान्त सहा शब्द को बलात् । द्वितीयार्थक लुप्तविभक्तिक पद बनाने की क्लिष्ट कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012051
Book TitleParshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1994
Total Pages402
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy