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________________ श्री. गिरिजादत्तजी त्रिपाठी कहा गया है। वस्तुओं के स्थिर तथा परिवर्तनीय रूप विरुद्ध धर्मों का समन्वय ही हमें अनेकान्तवाद का मार्ग दिखाता है जिसे हम Relative pluralism कहते हैं । इस सिद्धान्त का आविष्कार इस संप्रदाय को प्राचीनतम उपनिषद् तथा बौद्धों से पृथक् करने के लिये ही हुआ है। किसी वस्तु में स्थिरता का दम भरना उसकी कुछ विभिन्न अवस्थाओं को लेकर होता है। सुवर्णपिण्ड एक दृष्टिकोण से द्रव्य है और दूसरे दृष्टिकोण से कुछ दूसरी ही वस्तु । उसे हम उसी हालत में द्रव्य कह सकते है जब उसे अनेक परमाणुओं का संघात माना जाय । यदि उसे हम काल या दिक् के दृष्टिकोण से विचारें तो वह द्रव्य नहीं कहा जा सकता। इस लिये वह सुवर्णपिण्ड एक ही काल में द्रव्य और द्रव्याभाव भी कहा जा सकता है । यह परमाणनिष्पन्न भी कहा जा सकता है और उससे भिन्न भी। यदि हम उसे पृथ्वी परमाणु से बना हुआ माने तो वह परमाणु-निष्पन्न कहा जा सकता है और चूंकि वह जल परमाणु से नहीं बना है इस लिये उससे भिन्न भी है । उस सुवर्णपिण्ड से जो कुण्डल तैयार किया गया वह भी अनेक खभाववाला है । वह द्रवीभूत सुवर्ण से बने रहने पर भी ठोस सुवर्ण से नहीं बना है । राल से बने रहने पर भी श्याम से नहीं बनाया गया है । इस प्रकार वस्तुस्वरूप की परीक्षा करने पर यही सारांश निकलता है कि वस्तुओं का स्वरूप दृष्टिकोण पर निर्भर रहता है जिसे हम Conditional कह सकते हैं। इसी अनेकान्तवाद की नींव पर जैनदर्शन का नयवाद तथा स्याद्वाद अवलम्बित हैं । किसी वस्तु के स्वभाव के सम्बन्ध में जब हम कोई निर्णय देने को तैयार होते हैं उस समय दो बातें हमारे सामने आती हैं। पहली वात तो यह है कि जब ' यह मनुष्य है ' इस वाक्य का उच्चारण हम करते हैं उस समयं हमारे ध्यान में उस के अनेक गुणों का चित्र खिंच जाता है लेकिन वे गुण सामूहिक रूप से उस चीज में हमारे सामने आते हैं । उस वस्तु के गुणों को उस वस्तु से पृथक् हम नहीं देखते । दूसरी बात यह है कि हम वस्तु के गुणों को उस वस्तु से पृथक् करके समझते हैं और दृष्टिकाल में वस्तु असत्रूप में रह जाती है । सारांश यह कि जब हम किसी वस्तु को देखते हैं उस समय उस के गुणों को ही देखते हैं, वस्तु तो उस जगह केवल मायानगर की भांति असत् मात्र है। इन्हीं दो प्रकार के दृष्टिकोणों को जैन दर्शन में द्रव्यनय तथा पर्यायनय शब्दों से व्यवहृत करते हैं । जिस प्रकार इस अनेकान्तवाद के सिद्धान्तने नयवाद का जन्म दिया उसी प्रकार इसने स्याद्वाद को भी पैदा किया । यदि अनेकान्तवाद की सत्ता स्थिर न हो तो स्याद्वाद टिक ही नहीं सकता। इस लिये संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद वाद के सभी जैन दार्शनिक सिद्धान्तों का मूल स्रोत है जिसने समय समय पर अनेक विषयों के द्वारा इस दर्शन के काया को पूर्ण किया है। भताब्दि ग्रंथ ] .:२०५:. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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