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________________ अनेकान्तवाद कहते थे कि हरेक चीज प्रतिक्षण में बदलती रहती है: 'प्रतिक्षणं परिणामिनो हि सर्व एव भावाः ' । कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी भी रूप में स्थिर रह सके। जब मनुष्य सुवर्णपिण्ड को देखता है उस समय उस सुवर्ण के गुण के अलावे और कुछ भी नहीं देखता । इस के अतिरिक्त कोई गुण रहित चीज दृष्टिगोचर नहीं होती जिसे उपनिषद स्थिर या अपरिवर्तनशील शब्द से व्यवहृत करते हैं । बौद्धों का कहना हैं कि किसी वस्तु की स्थिरता या अपरिवर्तनशीलता केवल बुद्धि की कल्पना है, वह अज्ञान-प्रसूत है । सारांश यह निकला कि एक ओर तो उपनिषद डंके की चोट से यह बतलाना चाहते है कि वस्तु की स्थिरता सत्य हैं । दूसरी ओर बौद्ध दर्शन सबों की अस्थिरता की बिगुल फूंकता हैं । ऐसी परिस्थिति में एक ऐसे संप्रदाय की नितान्त आवश्यकता थी जो इस असामञ्जस्य को दूर करे । इसी विषम परिस्थिति को संभालने के लिये बीच में जैन दर्शन खड़ा होता है जो दोनों की बातों का खंडन कर एक नये मार्ग का जन्म देता है, जो भारतीय साहित्य में एक अपना स्थान रखता है। यह हम पहले बता चुके हैं कि जैन संप्रदाय बौद्ध संप्रदाय का समकालीन था; इतना ही नहीं किन्तु कुछ उपनिषद् भी ऐसे थे जिनका समकालिक जैन दर्शन था । उपनिषद् और बौद्धों के परस्पर झगड़े का निपटारा करने के लिये जैन दर्शन यह कहता है कि यह कहना ठीक नहीं है कि केवल वस्तु का स्वरूप ही सत् है और उस में रहनेवाले गुण केवल काल्पनिक हैं। यह भी कहना उचित नहीं है कि हरेक भाव प्रतिक्षण में बदलते रहते हैं जैसा कि बौद्धों का सिद्धान्त है। सच बात तो यह है कि दोनों संप्रदायों में कुछ अंश सत्य है और कुछ असत्य । इस का कारण यह है कि किसी भी वस्तु की सिद्धि अनुभव के द्वारा होती है और अनुभव यही कहता है कि वस्तु न तो एकान्त सत् है न एकान्त प्रतिक्षण में परिणमनशील । अनुभव इसी सत्यता को प्रकाशित करता है कि गुणों के कुछ समवाय एसे हैं जो अपरिवर्तनशील हैं, कुछ नये गुण पैदा हो जाते हैं और कुछ पुराने धर्म नष्ट हो जाते हैं । जैन दर्शन का कहना है कि बौद्धों का यह सिद्धान्त कुछ अंशों में ठीक है कि प्रतिक्षण में वस्तुओं का परिणाम हुआ करता है। लेकिन यह कहना बिलकुल गलत है कि वस्तुओं के सभी गुणों में परिवर्तन होता है । वस्तुस्थिति तो यह है कि कुछ धर्म परिवर्तित होते हैं और कुछ नहीं । जब सुवर्णपिण्ड का कुण्डल बना दिया गया तो उसका पिण्डभाव नष्ट हो गया, एक कुण्डलभाव पैदा हो गया और सुवर्णभाव ज्यों का त्यों बना हुआ है । इस प्रकार वस्तुओं और उन के धमों का पृथक्करण यदि किया जाय तो यही सिद्ध होगा कि हरेक चीज अनेक स्वभावों को अपने अन्दर रखती है। वस्तुओं की अनेक स्वभावता की नींव पर ही सारे जैन दर्शन की इमारत खड़ी की गयी है । वस्तु के इस स्वरूप को देखकर ही 'अनन्तधर्मकं वस्तु ' यह .:२०४:. [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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