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________________ जैन धर्म और अनेकान्त नहीं होती । जनता तो उसके व्यावहारिक उपयोग को देखती है, इसलिये अनेकान्त की व्यावहारिक उपयोगिता ही विशेष विचारणीय है। धर्म हो या संसार की कोई भी व्यवस्था हो वह इसीलिये है कि मनुष्य सुखशान्ति प्राप्त करे । सुखशान्ति के लिये हमारा क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है और उस कर्तव्य को जीवन में कैसे उतारा जा सकता है और अकर्तव्य से कैसे दूर रहा जासकता है इसी के लिये धर्म है, इसी जगह अनेकान्त की सब से बड़ी उपयोगिता है। आज रूढ़ि और सुधार के बीच में तुमुल युद्ध हो रहा हैं। जैन समाज भी इस से अछूता नहीं है । यदि जैन समाज में अनेकान्त की भक्ति होती तो क्या यह सम्भव था कि इस युद्ध का ऐसा रूप होता ? । पद पद पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दुहाई देनेवाले जैन शास्त्र क्या किसी सुधार के इसीलिये विरोधी हो सकते हैं कि वह सुधार है या नया हैं ? क्या हमारा अनेकान्त सिर्फ इसी लिये है कि वह स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा घट का अस्तित्व और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा घट का नास्तित्व बतलाया करे? क्या उसका यह कार्य नहीं है कि वह यह भी बतलावे कि समाज के लिये अमुक कार्य-रीतिरिवाज-अमुक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के लिये अस्ति है और दूसरे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के लिये नास्ति है। इस लिये यह बहुत सम्भव है कि धर्म के नाम पर और व्यवहार के नाम पर आज जो आचार-- विचार चल रहे हैं उन में से अनेक हजार, दो हजार वर्ष पुराने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के लिये अस्तिरूप हों और आज के लिये नास्तिरूप हों । मेरा यह कहना नहीं है कि हरएक आचारविचार को बदल देना चाहिये । मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि हम कों अपने आचारविचार पर अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिये कि उसमें क्या क्या आज के लिये अस्तिरूप है और क्या क्या नास्तिरूप है । सम्भव है कल जो अस्ति है वह आज नास्ति हो जाय और कल जो नास्ति था वह आज अस्ति हो जाय । परन्तु जैनसमाज का दुर्भाग्य तो इतना है कि इस अनेकान्त दृष्टि का व्यावहारिक उपयोग करना तो दूर किन्तु उस पर विचार करना भी घृणित समझा जाता है। अगर कोई विदेशी इस दृष्टि से विचार कर के कुछ बात कहे तो जैनसमाज उसके गीत गा देगा, परन्तु उस दृष्टि से स्वयं विचार न करेगा। आज अनेकान्त के गीत गाने को जैनसमाज तैयार है । जिन लोगों ने अनेकान्त को पहिले व्यावहारिक रूप दिया है उन के गीत गाने को जैनसमाज तैयार है, और उन के गीत गाने को भी जैनसमाज तैयार है जो जैनसमाज के बाहर रहकर अनेकान्त का व्यवहारिक उपयोग कर रहे हैं; परन्तु दुर्भाग्यवश जैनसमाज यह नहीं चाहता कि कोई उसका लाल अनेकान्त का व्यावहारिक उपयोग करे उसको कुछ ऐसा रूप दे जिस से जड़ समाज में कुछ चैतन्य की उद्भूति हो, दुनियाँ का कुछ आकर्षण हो, उसको कुछ मिले भी। जैन समाज को आज सिर्फ नाम की पूजा करना है; अर्थ की नहीं। •: १७२ : [ श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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