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________________ श्री आचार्यदेव का स्मरण तथा इस शुभकार्य में उनका आशीर्वाद चाहते हैं। तब श्री गुरु जीवनरामजी कहते हैं“ ऐ आत्माराम ! इस समय पंजाब में तुम्हारा एक भी साथी नहीं है। चाहे मूर्तिपूजा जैन सूत्रों के अनुकूल हो, पर इस समय इस का प्रचार समयोपयोगी नहीं है । तुम साधु हो, तुम संयम से भ्रष्ट हो जाओगे।" इस समय आप ने विनीतभाव से निवेदन किया-" आप मेरे गुरु हैं, यदि आप का आशीर्वाद मेरे साथ रहा, तो मैं इन सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करुंगा। सत्य के प्रचार में सदा रुकावटें आया ही करती हैं।" 'श्रेयांसि बहुविनानि ।' यह था उन का सत्यप्रेम। मूर्तिपूजा के प्रचार में आप की पहली मुठभेड़ सनाम नामक स्थान में एक कनीराम नामक साधु से होती है । उस ने शास्त्रार्थ में कहा—“ तुम गुरु और बापदादा के बताए अर्थ को अशुद्ध बताते हो ।" आप ने वीर गर्जना से उत्तर दिया--" मैं गुरु का बंधा हुआ नहीं हूं। मुझे तो भगवान् महावीर की सच्ची बाणी का प्रचार करना है।" तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषा पिबन्ति । उन दिनों पूज अमरसिंहजी ढूंढक सम्प्रदाय के शिरोमणि साधु थे । उन्हों ने आप से मूर्तिपूजाविरोधी विचारों को छोड़ने का अनुरोध किया पर आप यही कहते रहे कि “ मैं सच्चाई का त्याग करने को तैयार नहीं हूँ।" आप के प्रचार में अनेक विघ्न-बाधायें डालने के लिये पूज अमरसिंह ने एक प्रतिवाद पत्र तैयार किया, जिस में बड़े नामी साधुओं तथा उनके गुरु जीवनरामजी के भी हस्ताक्षर करवाकर कुछ साधुओं और गुरुजीद्वारा उस पर आप के भी हस्ताक्षर करवाने के लिये वह पत्र आप के पास भेजा गया। पर आप तो सत्य के पूजारी थे। संसार की तुच्छ शक्तियों से आप न डरते थे । आप ने उस समय निःशंक होकर कहा-“ मेरे लिये गुरुजी का सम्मान करना आवश्यक है। अगर गुरुजी का नाम न आता तो मैं इस कागज़ को टूक टूक कर देता। संसार की कोई शक्ति भी मुझे जैन धर्म के सत्य बिचारों के प्रचार करने से रोक नहीं सकती।" __ आप का यह सत्यप्रेम ही आप की सफलता का कारण हुआ । तुलसीदासजी ने कहा है—'जा का जेहि पर सत्य सनेहू सो तिहि मिले न कछु संदेहू ।” फलतः मूर्तिपूजा पुनः सजीवन हुई । अरिहन्त भगवान्की शान्तमूर्ति के दर्शन करने का सब को सौभाग्य प्राप्त हुआ। [श्री आत्मारामजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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