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________________ श्री. शशिभूषण शास्त्री जर्मनी के विख्यात सुधारक मार्टिन लूथर के जीवन में भी सत्यनिष्ठा कूट कूट कर भरी हुई थी। इसी कारण वह निर्भय होकर रोम के पोप के विरुद्ध घोर आन्दोलन कर रहा था। इसी सत्यनिष्ठा के बल पर उसने अपने मित्रों को जिन्हों ने उसे वर्मस नगर की शत्रुओं की विराद सभा में जाने से रोका था, स्पष्ट कह दिया था-" Go and tell your master that though there should be as many devil at Warms as there are tiles on its roof I would enter it " अर्थात् “ वर्मस् नगर में यदि उतने ही मेरे शत्रु एकत्रित हो जायें जितनी की यहां की छत पर खपरेले हैं, तो भी मैं सभा में अवश्य जाऊंगा।" इस वीरोचित उत्तर को सुनकर उस के मित्र अवाक रह गये । लूथर निश्चिन्त वर्मस् नगर की सभा में सम्मिलित हुआ और सत्य की जीत का डंका बजाता हुआ वापिस लौटा । पाठकगण ! आइये, अब तनिक अपने श्रद्धेय आचार्यदेव का भी स्मरण करें । उन की सत्यनिष्ठा का अवलोकन करें। श्रीमद्विजयान्दसूरि महाराजजी का तो समस्त जीवन ही सत्य के प्रेम में रंगा हुआ था । छोटपन से आप में सत्यप्रियता का गुण अंकुरित हो चुका था । जिस समय आप अपने हमजोलियों से धूली-क्रीडा करते हुए बालसुलभ सरल जीवन बिता रहे थे उस समय खेलकूद में बच्चों के झगड़े को निपटाने के लिये आप को ही प्रमाण समझा जाता था । आप निष्पक्ष होकर सच सच बता दिया करते थे। आप की जीवनी का यही गुण एक मूल मंत्र था । सच्चाई के लिये आप का प्रेम निःसीम था । सत्यार्थ की खोज में आप ने अपने तन को छलनी बना दिया था। शास्त्रों के सच्चे अर्थ की खोजमें आप स्थान स्थान पर घूमा करते थे । जहां भी किसी विद्वान् साधु महात्मा का नाम सुन पाते, वहीं पहुंचते । पाठकगण ! अनुमान लगाइये कि किसी प्रकार की भी सवारी पर न चढ़नेवाले साधु के लिये यह यात्रा कितनी यातनाओं से परिपूर्ण थी । आप कभी पंजाब जाते हैं, कभी मारवाड़ । आप का विचार था कि जैनों के ३२ सूत्र जैन सिद्धान्त हैं, पर सत्यार्थ का अन्वेषण कर जान लिया कि यह विचार भ्रमपूर्ण है। आप की सत्यनिष्ठा का साक्षात्कार उस समय होता है जब कि आप को विरोधियों का मुकाबला करना पड़ता है । जिस समय आप महाराज रतनचन्द्रजी से अपनी कई शंकाओं का निवारण कर, उनसे सद्धर्म-प्रचार करने की प्रतिज्ञा कर अपने गुरु जीवनरामजी से मिलते हैं शताब्दि ग्रंथ .:२५: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012050
Book TitleAtmanandji Jainacharya Janmashatabdi Smarakgranth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherAtmanand Janma Shatabdi Smarak Trust
Publication Year1936
Total Pages1042
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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