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________________ पण्डितजी बड़े स्पष्टवादी है। वे आगमके अनुकूल ही प्रवचन करते हैं। इसलिये उन्होंने शियिलाचारी मुनियों और उनके पोषकोंको सदा खरी बातें सुनाई हैं। वे मुनिधर्ममें किसी प्रकारको विसंगति नहीं चाहते । सत्यके प्रशंसक एवं प्रतिपादक अपने गुरुवरको मैं शतशत वंदन करता है। कंजूस और उदार व्यक्तित्व डॉ. रमेशचन्द जैन, बिजनौर (उ० प्र०) पण्डितजी स्याद्वाद महाविद्यालयके इतिहास में पिछले पचास वर्षसे अपनी सम्पूर्ण आभाके साथ उगते हुए सूर्यके रूपमें अधिष्ठित रहे हैं । इस महाविद्यालयको स्मृति आते ही पण्डितजीकी छवि अंकित हो जाती है। वस्तुतः स्याद्वाद और पण्डितजी एक दूसरेके पूरक हो गये हैं। किसो संस्थाके प्रति इतना ओतप्रोत जीवन्त पुरुष मैंने आज तक नहीं देखा । वहाँका छात्र होनेके कारण मुझे उनको अनेकों रूपोंमें देखनेका अवसर प्राप्त हुआ है। और बदलते प्रसंगोंमें जितना उन्हें नकारनेका प्रयत्न किया गया है, उतनी ही अधिक मात्रामें उनके साथ सम्बन्धोंकी सूढता घनीभूत हुई है । आजकी नवीन पीढ़ीके अनुशासनहीन वातावरणको देखकर उनके कठोर अनुशासनकी अनेक बार याद आई है और अपने पर्यावरणको किस प्रकार अनुशासित करना चाहिये, इसका अमूर्त सन्देश उनसे प्राप्त हुआ है। ___ छात्र कोई छोटासे छोटा ही अपराध क्यों न करे, उसे उनका सामना अवश्य करना होता था और अपनी स्थिति स्पष्ट कर अथवा उनसे दण्ड प्राप्त कर आनेके बाद ही अपराधी छात्रको मुक्तिकी साँस मिलती थी। विद्यालयका छात्र दिनभर अथवा रातमें कहीं भी रहे, सर्वत्र उसके मस्तिष्कमें पण्डितजी रूपी अप्रत्यक्ष साक्षी विद्यमान रहते थे। विद्वत्ता, वक्तता और लेखन-तीनोंकी दष्टिसे उनकी सरस्वती अद्वितीय है। विषयको सरल एवं सुस्पष्ट करना और अपने विचारोंको छाप श्रोतापर छोड़ देना, उनकी निजी विशेषता है। उनकी वाणीका जादू बड़ेसे बड़े कोलाहलमें भी नीरवता ला देता है और सुनने वाला उनकी दो ट्रक बातोंको सुनकर उनपर विचार करने और कार्य करनेको मजबूर होता है । यथार्थवादिता उनकी वाणीकी विशषता है। स्याद्वाद प्रचारिणी सभा, काशीकी एक सभामें वक्ताओंका विषय था 'यदि मेरे पास अमतकूम्भ होता' । अनेक वक्ताओंने अमतकुम्भके विषयमें व्याख्यान किये । किसीने कहा कि मेरे पास अमृतकुम्भ होता, तो मैं राजा श्रेणिकको पुनः पृथ्वीपर ले आता, किसीने कहा कि मैं राजा कुमारपालको जीवित कर देता, इत्यादि । अन्तमें जब पण्डितजी अध्यक्षीय भाषण देने खड़े हुए और उन्होंने अमृतकुम्भ पर सामान्य प्रकाश डाला, तो कुछ श्रोताओंने उनसे स्पष्ट कहा कि यह बताइये कि आपके पास अमतकुम्भ होता तो आप क्या करते ? पण्डितजीने तत्काल उत्तर दिया-मैं तो किसीको नहीं पिलाता, सारा अमत मैं ही पीकर अपनेको अमर कर लेता। यह उनकी यथार्थवादिताका एक दृष्टान्त है। पण्डितजीमें कंजूसी और उदारताका विचित्र संयोग उपस्थित है। लक्ष्मीको व्यय करनेमें, चाहे निज कार्यके लिये ही हो, वद्धमुष्टि रहना उनका स्वभाव है और अपनी इसी विशेषताके कारण प्रायः वे छात्रों तथा अन्य सम्पर्कमें आने वाले व्यक्तियोंकी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष आलोचनाकी परिधिमें आ जाते हैं । यह सब होते हुए भी उन्होने लक्ष्मीका संग्रह करनेमें कभी अन्यायका आश्रय नहीं लिया। परिश्रमसे उपार्जित अपनी सीमित सम्पदामें ही वे सुखी हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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