SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कृतज्ञ कारंजा गुरुकुल परिवार पं० माणिकचन्द्र चवरे, कारंजा और पं० माणिक चन्द्र भिषीकर, बाहुबली मैंने सर्वप्रथम विद्ववर कैलाशचन्द्रजीको अपनी विद्यार्थी अवस्थामे ५ मार्च १९३० को कारंजा गुरुकूलमें देखा था । तब वे बिजनौर रथयात्राके लिये पण्डित देवकीनन्दनजीको बुलाने आये थे। उसके पूर्व मैंने उनकी विद्वत्ताके विषयमें बहुत कुछ सुना था, पर जब मैंने अपनी संस्थाके संरक्षक स्वाध्यायपण्डित प्रद्युम्न साहूके साथ उनकी गोम्मटसारकी गहन और गूढ चर्चा प्रत्यक्षतः सुनी, तब मैं उनकी विद्वत्तासे अत्यन्त प्रभावित और प्रसन्न हुआ था। उन दिनों मेरे मनमें वाराणसी जाकर आपसे अध्ययन करने की अनेक बार इच्छा हुई । पर मुझे यह सूयोग नहीं मिल सका। आपके द्वारा लिखित और सुसंपादित अनेक ग्रन्थोंसे आपकी विद्वत्ताके दर्शन होते हैं । सागरके डा० पन्नालाल साहित्याचार्य, आ० अमृतचन्द्र रचित 'लघु तत्व स्फोट'का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे । उस समय यह निश्चय हुआ कि इसका आद्योपान्त वाचन बाहुबली (कुंभोज) में किया जाय। एतदर्थ मुझे भी उनके साथ लगभग अढाई सप्ताह तक रहनेका संयोग प्राप्त हुआ। उस समय आपने हस्तलिखित प्रतिके आधार पर कई अशुद्ध पाठोंको शुद्ध करने में तथा अनेक दुरूह पाठोंके आशयको समझाने में अपनी सातिशय प्रतिभाका प्रकटन किया। इसी समय मुझे आपके व्यक्तित्वकी अनेक अमूर्त तथा जीवंत घटनाओंका प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यद्यपि उन्होंने अपने मुखसे कभी अपने विषयमें नहीं कहा, लेकिन उनके सहपाठी पं० जगन्मोहनलालजीसे मुझे बहुतेरी बातें ज्ञात हुई। उनकी विशेषताओंका प्रत्यक्ष दर्शन अत्यन्त सुखद रहा । मैने उनमें निरामय निश्छलता, सन्तुष्ट परोपकारिता, उद्यमशीलता, सादगीपूर्ण पवित्रता, दृष्टिसम्पन्न ज्ञानपरायणता पाई। इस समय मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि आपको निर्दोष जिनवाणीके किसी भी अंगका अवमूल्यन स्वप्नमें भी इष्ट नहीं। यह उन्हें असह्य है। परमागमका मूल्यांकन परमागमके रूपमें होना चाहिये । वक्ता समय या विषयके अनुसार गौण-मुख्यरूपसे कथन करे, यह बात दूसरी है परन्तु आप जिनवाणीका सदा समादर चाहते हैं। यद्यपि वाराणसीसे कारंजा काफी दूर है, पर पण्डितजीने हमारे निमंत्रणोंको सदैव स्वीकार किया है और वे आत्मीयतापूर्वक यहाँ पधारे हैं । उन्होंने प्रामाणिक सलाहकारके रूपमें हमें अपनी संस्थाओंकी विशेषतः एलोरा गुरुकुलकी अनेक पेचीदी समस्याओंको सुलझाने में समयोचित और समचित मार्गदर्शन दिया है । एतदर्थ गुरुकुल परिवार आपका कृतज्ञ है। आपकी प्रामाणिक ज्ञान साधना अद्भुत रूपसे धारावाही तथा अखण्ड रही है। आपका सुसंस्कृत व्यक्तित्व समाजके लिये आदर्श एवं वरदानस्वरूप रहा है। मेरी हार्दिक भावना है कि आप निरामयरूपसे दीर्घजीवी रहें और आपके परिपक्व अनुभवोंसे समाज लाभ उठाता रहे। शत-शत वन्दन स्वतंत्र जैन, सूरत गुरुजीकी हम क्या बात करें, क्या लिखें? हम जैसे अगणित शिष्यों पर आपके ऐसे उपकार हैं जिनसे हम जीवन भर भी ऋणमक्त नहीं हो सकते । शिष्योंकी बात छोड़िये, वे समाजको अपने जीवन में देते ही रहे हैं। आपको बड़ी बड़ी शक्ति तथा प्रलोभन भी नहीं डिगा सकी है। ऐसे ठोस सत्यवादी एवं व्यापक ईमानदारके प्रति हम नतमस्तक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy