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________________ सोनगढ़ में पंचकल्याणकके अवसरपर विद्वत् सम्मेलनको आयोजना की गई थी । आयोजनका स्वरूप और अभिप्राय अघोषित था । अध्यक्षता करनेके लिए पंडित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री उपस्थित थे । उद्घाटन श्रीमान् जगन्मोहनलालजीको करना था और प्रमुख वक्ता पंडित कैलाशचन्द्रजी थे । मेलेमें सोनगढ़ विचारधारा के समर्थक तो विपुल संख्या में थे ही, ऐसे लोगोंकी भी वहाँ पर्याप्त संख्या थी जो इस विचारधाराको परीक्षणीय और विचारणीय मानते हुए उसपर प्रश्नचिन्ह लगाते थे । सोनगढ़ परिकरके इन दो विद्वानोंको बोलनेका अवसर देनेमें क्या हेतु है, क्या रहस्य है, यह वहाँ चर्चाका विषय बना हुआ था । इस सम्मेलन में ये दोनों विद्वान् अनेकान्त विचारधाराका कैसा प्ररूपण करेंगे, यह सुनने के लिए हजारों लोग उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे । उद्घाटन भाषण में पंडित जगन्मोहनलालजीने 'परस्पर सापेक्षता' और 'निमित्त की तत्कालिक उपादेयता' का जो सुन्दर प्रतिपादन किया उसे लिखनेका यहाँ प्रसंग नहीं है । पंडित कैलाशचन्द्रजीने 'परमागम मंदिर' के प्रस्तुतीकरण की सराहना करते हुए बड़े जोरदार शब्दों में दो बातें कहीं। पहली यह द्यपि एक वस्तु दूसरीपर कोई प्रभाव नहीं डालती है फिर भी कुछ तो बात है कि यह पच्चीस हजार का श्रोता समुदाय कानजी स्वामीके निमित्तसे और परमागम मंदिरके निमित्त से अपने उपादानको प्रभावित करने के लिए आज यहाँ उपस्थित हुआ है । पंडितजीने दूसरी बात यह कही कि आचार्य कुन्दकुन्दने अकेले समयसारकी रचना नहीं की, उन्होंने और भी अनेक ग्रन्थ रचे हैं । कुन्दकुन्दके दर्शन को समझने के लिए हमें उनकी सम्पूर्ण रचनाओंको सामने रखकर विचार करना पड़ेगा । जिन-वाणीका भण्डार बहुत बड़ा है । उसकी प्ररूपणा करनेवाले वीतरागी आचार्यो की परम्परा भी बहुत बड़ी है । कुन्दकुन्द अकेले नहीं हैं । धरसेनाचार्य, भूतबली, पुष्पदन्त और समन्तभद्र भी हैं । उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंकदेव और श्रुतसागर भी हैं । यतिवृषभ, नेमिचन्द्र, अमृतचन्द्र, जिनसेन और जयसेन भी हैं । हमें इन सबकी कथन पद्धतिको दृष्टि में रखकर ही मार्गका निर्णय करना पड़ेगा । अकेले कुन्दकुन्दके लिए हम, आचार्योंकी दीर्घ परम्पराका बलिदान नहीं कर सकते । पण्डितजीका यह भाषण तालियोंकी लम्बी गड़गड़ाहट में मुक्तकण्ठसे सराहा गया। वास्तव में यह भाषण सुनने योग्य तो था ही, देखने योग्य भी था । जिस समय वे "आचार्योंकी परम्पराके बलिदान" की बात कह रहे थे, उस समय उनके शब्दोंकी दृढ़ता और उनके मनका आवेश सचमुच दर्शनीय हो उठा था । उन्होंने तीन मिनटमें जो कुछ कह दिया, उसने उनके तीस वर्षकी साधना परसे संशयका कोहरा हटाकर उनके अनेकान्त प्रेरित चिन्तनको निमिष भर में उजागर कर दिया । प्रायः सुनने में आता है कि पण्डितजी तो मुनि-विरोधी हैं। वे तो साधुओंको नमस्कार भी नहीं करते । परन्तु मेरा अनुभव बिलकुल दूसरा है । पण्डितजी आचार्य संहिताके मर्मज्ञ और परीक्षा प्रधानी, आस्थावान् व्यक्ति हैं । अन्धभक्ति या मूढभक्ति अवश्य उनके भीतर नहीं है । वे पंच परमेष्ठीकी वन्दना करते समय लोकके सर्व साधुओंको जिस आस्थासे त्रिबार नमन करते हैं उसी आस्थासे उन साधुओंके लिए उनका साक्षात् नमस्कार हमेशा निवेदित है जो साधु, आचार संहिताके अनुसार 'ज्ञान-ध्यान और तप' में लगे हुए हैं । मैंने उन्हें स्वर्गीय आचार्य शिवसागर महाराजके संघमें विनयपूर्वक परामर्श करते हुए देखा है | आचार्य श्री विद्यासागर महाराजके चरणोंमें तो वे एकाधिक बार पहुँचे हैं । उन्होंने अत्यन्त भक्तिपूर्वक महाराज से न केवल चर्चायें की हैं वरन् उन्हें आहार भी दिया है । पूज्य समन्तभद्र महाराजके पास भी पंडितजी गये हैं । इस प्रकार वे जिनवाणी और जिनदेवके भक्त तो हैं ही । वीतरागी गुरुके प्रति भी उनके मनमें अपार श्रद्धा और भक्ति हैं । Jain Education International - ३१ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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