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________________ 1 पंडितजी के व्यक्तित्व और कृतित्वके सम्बन्धमें अपने-अपने ढंगसे बहुत कुछ लिखा जा सकता लिखा जा चुका है और लिखा जा रहा है। मैं उनके प्रति अपनी आदरपूर्ण भावनाओंको थोड़ी-सी पंक्तियोंमें बाँधने का प्रयत्न करूँगा । 1 पंडितजीसे मेरा परिचय तो पूज्य बाबा गणेशप्रसादजी वर्गीके चरणोंमें, सागरमें लगभग तीस वर्ष पूर्व हुआ था। उसके बाद विद्वत् परिषद्के निमित्त से तथा पूज्य वर्गीजीकी जयन्तो के निमित्तसे और सामाजिक उत्सव अनुष्ठानोंके निमित्त से प्रतिवर्ष एकाधिक बार उनका दर्शन और सम्पर्क प्राप्त होता आया है | सतनामें उनकी सेवा करने का अवसर भी कई बार प्राप्त हुआ है, दो बार तो पर्यूषण पर्व में उन्होंने सतना पधारने की कृपा को उनकी अर्हतुकी कृपाका प्रसाद उदारतापूर्वक समाजमे छोटे-बड़ों सभीको मिलता है । इससे अधिक मुझे उनका स्नेह भी प्राप्त हुआ है । घण्टों दिनों और कभी-कभी सप्ताहों मैंने बड़ी निकटता से उनके व्यक्तित्व का अध्ययन किया है। मैं इस बात को अतिशयोक्ति नहीं किन्तु यथार्थके रूपमें स्वीकारने योग्य मानता हूँ — कि जैसा बहुमुखी व्यक्तित्व पंडित कैलाशचन्द्रजीके रूपमें विकसित हुआ है। बैसा बहुत कम लोगोंका हो पाता है। जितने अनूठे साधना-सिद्ध आयाम पंडितजीके व्यक्तित्व में रूपायित हुए हैं, उतने बहुत कम लोगोंके व्यक्तित्वमें हो पाते हैं । मैंने उनमें समय-समय पर विद्यार्थीका लगन और निष्ठा का दर्शन किया है, विद्वान्की गहराइयाँ देखी हैं, साधकका मनन और चिन्तन परिलक्षित किया है, प्राचार्य का अनुशासन और दृढ़ता देखी है तथा एक फक्कड़-मनमौजी व्यक्तिकी निश्चिन्तता पाई हैं । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने आपको सही दिशामें स्थिर रखते हुए, अपने अभिप्रायकी साधना करनेकी कला यदि सीखना हो, तो उसे बड़े-बड़े ग्रन्थोंमें ढूँढ़ने के बजाय पंडित कैलाशचन्द्रजीके जीवनसे सीख लेना अधिक आसान है। फक्कड़पन की सीमाओंको छूती हुई उनकी इसी निस्पृहताने उन्हें समस्त दिगम्बर समाजकी कई पीढ़ियोंके लिए वन्दनीय बना दिया है । ईसरीमें पूज्य वर्णीजीकी समाधिके समय प्रथम बार, अधिक दिनोंके लिए मुझे उनका सांनिध्य प्राप्त हुआ। जीवनके प्रति उनकी निस्पृहताका, अपने प्रति उनकी जागरूकताका और क्षुद्रताओंके प्रति उनकी उपेक्षा भावका मुझे पहला दर्शन वहीं प्राप्त हुआ। उनके व्यक्तित्वकी अगम गहराईने मुझे उसी दिन उनका प्रशंसक बना लिया। दूसरी बार मैंने उन दिनों उनकी जटिल मनःस्थितिका अध्ययन किया जब जैन-सन्देशमें उनके लेखनको लेकर उन पर सोनगढ़ के प्रति पक्षपातका आरोप, समाज में एक विशिष्ट वर्ग द्वारा लगाया जा रहा था, सोनगढ़ से स्वार्थ साधन करनेका मनगड़न्त और बेबुनियाद आरोप प्रचारित करके उनके चरित्र हननका प्रयास किया जा रहा था। मैंने पाया कि ऐसे क्षुद्र आरोपोंका प्रतिकार करने में पंडितजीने कभी एक क्षण भी नष्ट नहीं किया। उसकी आवश्यकता भी नहीं समझी। बड़ीसे बड़ी दुरभिसन्धि कभी उनकी निष्कर्ष निर्भीकताको आन्दोलित नहीं कर पाई और बड़ेसे बड़े प्रलोभन भी उनकी लेखनी या वाणी से कभी अन्यथा प्रतिपादन कराने में, या गोल-मोल बात कराने में समर्थ नहीं हुए । वस्तु स्वरूपके चिन्तनमें उनका मस्तिक सदैव अत्यन्त सुलझा हुआ रहा और उन्होंने हमेशा दो टूक लहजे में तत्त्वका यथार्थ विश्लेषण स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया। सोनगढ़ परम्परामें कानजी स्वामी और उनके परिकरके पास अध्ययन, चिन्तन और साधनाका जो तत्व जिस सीमा तक उन्हें उचित लगा, उन्होंने किसीकी परवाह न करते हुए निडर होकर उसकी प्रशंसा की जो आचरण उन्हें अनुपयुक्त लगे 'पोपडम' । और 'एकान्तपक्ष' जैसे कठोर शब्दोंमें उनकी आलोचना करनेमें भी पंडितजी कभी सहमे नहीं । जैन - सन्देश के उनके कई सम्पादकीय लेख पढ़ने में तो दस मिनट लगते हैं परन्तु महीनोंके चिन्तनकी सामग्री पाठकोंको दे जाते हैं । 'एलाचार्य पदवी' ' अथवा 'पीछी कमण्डलु' 'उनके ऐसे ही लेख हैं । Jain Education International - ३० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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