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________________ ९५० ई० के पास पंप, पोन्न, आदि कन्नड़ कवियोंने इनकी प्रशंसा की है। इसलिये इन्हें उनका पूर्ववर्ती होना चाहिये। इनके आश्रयदाता तमिल प्रदेश निवासी थे । सम्भवतया इन्होंने तत्कालीन पल्लव नरेश नन्दिवोतरसके चोलसामन्त श्रीनाथके आश्रयमें उनकी विरलानगरीमें आर्यनन्दीके वैराग्य पर वर्धमानच रचना की थी। इसी प्रकार शान्तिनाथपुराणकी रचना जिनाप ब्राह्मणके प्रबल आग्रह पर की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक कन्नड़ लेखक महाकवि असगसे अच्छी तरह परिचित हैं। अनेक कन्नड़ लेखकोंने असगका उल्लेख अपने ग्रंथोंमें किया है । हरिवंशपुराणके कर्ता धवलाने अपने वीरजिनेन्द्रचरितमें असगका उल्लेख किया है।' दुर्गासिंह (१०३१ ई०) ने अपने कन्नड़-पंचतंत्रमें अन्य कवियोंके साथ असगका उल्लेख किया है । असग शब्द कैसे बना, यह स्पष्ट नहीं है। असग शब्द अगसका पुराना रूप है जिसका अर्थ धोबी होता है किन्तु असग पेशेसे धोबी थे, ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । डा० उपाध्येके अनुसार असग असंग शब्दका परिवर्तित रूप है। जैन काव्योंकी परम्परा और विशेषता प्रारम्भमें जैन कवियोंने अपनी काव्य प्रतिभाका विकास प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओंके द्वारा किया है। कालान्तरमें प्राकृत और अपभ्रंशके साथ ही उन्होंने संस्कृत भाषाको चरित काव्योंके लिए अपनाया और अनेकों चरित काव्य तथा महापुरुषोंकी चारुचरित्रावलि संस्कृतमें निबद्ध की गई। ऐसे महाकवियोंमें असग पहली पीढ़ीके कवि हैं । उनका काव्य कोरा काव्य नहीं है, अपितु एक महापुराणोपनिषद् है।४ जैन परम्पराके चरित ग्रन्थोंमें चरितके नायकके वर्तमान जीवनको उतना महत्त्व नहीं दिया जाता जितना उसके पूर्वजन्मको दिया जाता है। इसका कारण यही है कि जीव किस तरह अनेक जन्मोंमें उत्थान और पतनका पात्र बनता हुआ अन्त में अपने सर्वोच्च पदको प्राप्त करता है। तीर्थंकर बसकर क्या किया, इसकी अपेक्षा तीर्थकर कैसे बना, इसका विशेष वर्णन होता है। तीर्थंकरके कृतित्वसे तो पाठकोंके हृदयमें केवल तीर्थकर पदकी महत्ता या गरिमाका बोध होता है । किन्तु बननेकी प्रक्रिया पढ़कर पाठकको आत्मबोध होता है। उसे स्वयं तीर्थकर बननेकी प्रेरणा मिलती है। कविकी ग्रन्थ रचनाका उद्देश्य अपने पाठकको प्रबुद्ध करके आत्मकल्याणके लिए प्रेरित करना है ।' महाकविको अपने उद्देश्यमें पर्याप्त सफलता मिली है। वर्धमानचरितम्का विवरण वर्धमानचरितम् संस्कृत भाषाका एक महत्त्वपूर्ण काव्य है। यह १८ सोंमें निबद्ध है । इसमें तीर्थकर महावीरका चरित सैतीस पूर्वजन्मोंको वर्णनके साथ चित्रित किया गया है। डा० रामजी उपा १. असगु महाकइ जे सुमणेहरु वीरजिणेंदचरिउ किउ सुंदरु । केन्तिय कहमि सुकइगुण आयर गेय काव्व जहिं विरइय सुंदर ।। २. पीसतेनिसि देसेयिं नवरसमेयेयल्कोल पुवेत मार्गदिनिलेगे । ___नैसेदुवौ सुकविगलेने नेगलदसगन मनसिजन चन्द्रभट्टन कृतिगल ।। ३. सं० बी० एस० कुलकर्णी, धारवाड़, १९५० । ४. इत्यसगकृते वर्धमानचरिते महापुराणोपनिषद् भगवन्निर्वाणगमनोनाम । ५. कृतं महावीरचरित्रभेतन् मया परस्वप्रतिबोधनार्थम् । - ४८२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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