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________________ जैनविद्याओमें शोधके क्षितिज जीवविज्ञान डा० कल्पना जैन, भिण्ड (म०प्र०) लोढ़ा,' सिकदर और जैन के विवरणात्मक तथा समीक्षात्मक लेखोंसे पता चलता है कि जैन आगमों एवं अन्य ग्रंथोंमें अजीव पदार्थों के समान जीवित पदार्थोंपर भी पर्याप्त सामग्री मिलती है । जैनने आगम वणित जीवकी परिभाषाकी समीक्षा करते हुये बताया है कि जीव दो प्रकारके गुणोंसे अभिलक्षित किया गया है । पौद्गलिक रूपमें उसमें असंख्यात प्रदेशिकता, गतिशीलता, परिवर्तनशीलता, देहपरिमाणकता, प्राणापान, कर्मबन्ध एवं नानात्व पाया जाता है। अभौतिकरूपमें उसमें अविनाशित्व, अमूर्तत्व एवं चैतन्य (संवेदनशीलता) होती है। भावप्राभृतमें इसे रंगहीन, स्वादहीन, गंधहीन, अनिश्चित आकार, अलिंगी एवं ज्ञानेन्द्रियोंसे अगम्य बताया गया है । इसके आठ अलौकिक गुणोंमें केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तवीर्य व सम्यक्त्वके अतिरिक्त सूक्ष्मता, अव्याबाधता, अवगाहन क्षमता, तथा अणुकलघुत्वके समान गुण भी समाहित हैं। भगवतीसूत्रमें जीवके २३ नामोंका उल्लेख है जिनका भौतिक अभौतिक गणों वर्गीकरण किया जा सकता है। सारणी १ से पता चलता है कि जीवके अधिकांश लक्षण भौतिक प्रकृतिके हैं । वस्तुतः जिन लक्षणोंको अभौतिक श्रेणीमें बताया गया है, वे भी भौतिकताकी धारणासे स्पष्ट किये जा सकते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ये शरीरी जीवके विभिन्न कार्यों एवं स्थूल गुणोंको ही निरूपित करते है। इसमें मनोरंजक तथ्य यह है कि इन लक्षणोंमें अमूर्तताका गुण कहीं समाहित नहीं है । लगता है कि यह तो उत्तरवर्ती विकास है। साथ ही, कुन्दकुन्द और उमास्वातिके समयमें उपलब्ध आगमोंकी प्रामाणिकता निर्विवाद रही है। (यह सर्वार्थसिद्धिके विवरणसे भी पुष्ट होती है)। तब यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जीवके २३ लक्षणोंमें से केवल 'उपयोगोलक्षणम्' ही क्यों उत्तरकालमें मुख्य लक्षण माना जाने लगा? विद्वानोंको इस विषयमें अनुशीलन करनेकी आवश्यकता है। आधुनिक विज्ञानकी दृष्टिसे उपयोगके ज्ञान दर्शनात्मक रूपोंको संवेदनशीलताकी विभिन्न कोटियोंके रूपमें माना जा सकता है जिसकी भौतिक व्याख्या की जा सकती है। इस आधारपर आजका विज्ञान जीवनको भौतिक ही प्रदर्शित करता दिखता है । पर वह जीवनके मूल लक्षणको अभौतिक माननेके विषयमें मौन है। एक ओर जहाँ आधुनिक युगमें परखनलीमें सजा १. जैन, नन्दलाल : अ-जीव और जीवविज्ञान, वल्लभशताब्दी स्मारिका, १९७० । ब-वोटेनिकल कन्टेन्टस इन जैन कैनन्स, दिवाकर अभि० ग्रन्थ, १९७६ । स-जओलोजिकल कन्टेन्टस इन जैन कैनन्स, पूर्वोक्त, १९७६ । २. लोढ़ा, कन्हैयालाल : जैन आगमोंमें वनस्पतिविज्ञान, मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ, १९६८ । ३. सिकदर, जे०सी० : अ-फैब्रिक आव लाइफ एज कंसीब्ड इन जैन बायोलोजी, सम्बोधि,३,१,१९७४ ब-ए सर्वे आव प्लान्ट एण्ड एनीमलकिंगडम् पूज रिवील्ड इन जैन बायोलोजी १-२, जबलपुर वि० वि० व्याख्यानमाला १९७६ । -४६९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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