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________________ ज्योतिष्करण्डक : एक अध्ययन डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जबलपुर रतलामकी श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था द्वारा सन् १९२८ में प्रकाशित पंचाशकादि शास्त्रसंग्रहमें ज्योतिष्करण्डक नामक १७६ गाथाओंका एक ग्रन्थ संमिलित है। शीर्षकमें इसे पूर्वभद् बालभ्य-प्राचीनतर आचार्य रचित कहा गया है अर्थात् इसके रचयिताका नाम ज्ञात नहीं है किन्तु वे बलभीवाचना (पाँचवी सदी)से पूर्वके आचार्य थे । प्रारंभिक और अंतिम गाथाओंमें इसका आधार सूरपण्ण बताया गया है। सुना है कि इस पर आचार्य पादलिप्त (दूसरी शताब्दी)ने टीका लिखी थी किन्तु इसे देखनेका सौभाग्य नहीं मिला। इसमें दिया गया विवरण जैन साहित्यके ज्योतिष गणितका प्रतिनिधि रूप समझा जा सकता है । यह ईसवी सन्के आरम्भकी पूर्वको अवस्थाका परिचायक है क्योंकि इसमें बारह राशियों तथा सात बारोंका कोई उल्लेख नहीं है तथा बुध, शुक्र आदि ग्रहोंका भी विवरण नहीं है। केवल ग्रहोंकी संख्या ८८ है, इतना उल्लेख है । सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रोंसे सम्बंधित जो विवरण इस ग्रन्थमें मिलता है, उसकी वर्तमान निरीक्षणोंसे तुलना करनेका प्रयास यहाँ किया गया है। १. सौरवर्ष :-गाथा ४० में सौरवर्षकी अवधि ३६६ दिनरात बताई गयी है तथा गाथा ४३ में इसके मुहूर्त १०९८० बताये गये हैं (एक दिन रातमें ६० मुहूर्त होते हैं अर्थात् एक मुहूर्तमें दो घड़ी या ४८ मिनट होते हैं)। वर्तमान गणनाके अनुसार सौरवर्षमें ३६५ दिन और ५,८ घंटे होते हैं।' गाथा के अनुसार चान्द्रवर्षमें ३५४१३ = ३५४.१९ दिन-रात होते हैं। वर्तमान गणनाके अनुसार यह अवधि ३५४.३६ दिन-रात है। २. अधिकमास :-सौरवर्ष और चान्द्रवर्षका मिलान करनेके लिए प्रति तीस चान्द्र मासोंके बाद एक अधिकमास गिना जाता था, इस प्रकार पाँच सौर वर्षों में बासठ चांन्द्र मास होते थे (गाथा ९३ और ६२)। इस पंचवर्षीय युगका आरम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदासे माना जाता था (गाथा ५५) तथा इसके पहले, दूसरे और चौथे वर्ष चान्द्र कहलाते थे एवं तीसरे पाँचवे वर्ष अभिवर्धित कहलाते थे (गाथा ५०)। वर्तमान गणनामें अधिकमास इतना नियमित नहीं होता। जिस चन्द्रमासमें सूर्यका एक राशिसे दूसरी राशिमें संक्रमण नहीं होता, उसे अधिकमास कहा जाता है तथा जिस चन्द्रमासमें सूर्यका दो बार राशि सक्रमण होता है, उसमें क्षय मास भी होता है । इस गणनासे १९ वर्षों में सात मास होते हैं । ३. तिथिगणना :-गाथा १०५ के अनुसार प्रत्येक तिथिको अवधि २९३३ मुहूर्त होती है । दिनरात और तिथिका मिलान करनेके लिए वर्षा, हिम और ग्रीष्मके प्रत्येक चार मासोंमें तीसरे और सातवें पक्ष चौदह दिनके गिने जाते थे (भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन, वैशाख और आषाढ़के शुक्ल पक्ष १४ दिनके थे और शेष पक्ष १५ दिनके थे (गाथा ११२) । वर्तमान तिथिगणना इतनी नियमित नहीं है। १. अर्वाचीनं ज्योतिर्विज्ञानम् (रमानाथ सहाय, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, १९६४), पृ० २४ २. इण्डियन एफिमेरीज (स्वामिकन्नु पिल्ले, मद्रास १९२२)के प्रत्येक खण्डकी भूमिकामें इसका संक्षिप्त स्पष्टीकरण दिया गया है । - ४११ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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