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________________ इस सम्बन्धमें उन्होंने वामभागमें प्रदर्शित सारणी भी दी है। इन्होंने जैन अंकोंके आदिम आकारोंकी भी सूची दी है जो दक्षिण भागमें प्रदर्शित की गई है । विभिन्न हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंके आधार पर कापडियाने एक विस्तृत तालिका संकलित की है। इससे भी जैन साहित्यमें प्रचलित अंकोंकी बनावटके सम्बन्धमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। इन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची निम्न है : १. निशीथसूत्र, विशेषादि (११९४) १२. बृहत्कल्पसूत्रचूणि २. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति (शिष्यहिता) १३. उत्तराध्ययनसूत्र (१३४२) ३. पन्यवस्तुक १४. उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति ४. विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति १५. चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति (ललितविस्तर) ५. बृहत्कल्पसूत्रचूर्णि १६. ललितविस्तरपञ्जिका ६. ऋषिदन्ताचरित्र १७. मलयगिरीय शब्दानुशासन ७. निशीथसूत्र (विशेषचूादि (१२९४) १८. सप्ततिका ८. पिण्डविशुद्धि १९. व्यवहारसुत्रभाष्यटीका ९. उत्तराध्ययनसूत्र २०. व्यवहारसूत्रादि १०. बृहत्कल्पसूत्र २१. आचारांगसूत्रचूणि ११. बृहत्कल्पसूत्रलघुभाष्य २२. कपसूत्रादि । संकलनादि सूचक संकेत गणितके आधुनिक चिह्न धन (+) तथा ऋण ( - ) सबसे पहले१४८९ में मुद्रित हुए थे । गुणन (x) और भाग (:) के चिह्न क्रमशः १६३१ और १६५९ में प्रकाशित हुये थे। समता () का चिह्न राबर्ट रिकार्डेने सन् १५५७ में प्रचलित किया था। १४६० के लगभग बोहीमियाके एक नगर में जॉन विडमैन नामक एक गणितज्ञ हुआ है। सबसे पहले इसीने मुद्रित पुस्तकमें + और - चिह्नोंका प्रयोग किया है। अपनी पुस्तकमें इसने इन चिह्नोंको जोड़ने और घटानेके अर्थ में प्रयोग नहीं किया था । वह तो ये चिह्न व्यापारिक बण्डलोंपर यह दिखानेके लिये डाला करता था कि अमक बण्डल किसी निश्चित मात्रासे अधिक है या कम । प्राचीन भारतीय ग्रन्थोंका अवलोकन करनेसे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में भी संकलन आदि परिकर्मोको सूचित करनेके लिये संकेतोंका प्रयोग किया जाता था। ये संकेत या तो प्रतीकात्मक हैं या चिह्नात्मक । भारतीय ग्रन्थोंमें प्रयुक्त संकेतोंके विषयमें यहाँ संक्षेपण किया जा रहा है। जोड़नेके लिये संकेत वक्षाली हस्तलिपि २१ में जोड़नेके लिये 'युत' का प्रथम अक्षर 'यु' मिलता है। यह अक्षर 'यु' जोडी जानेवाली संख्याके अन्तमें लिखा जाता था। यथा जब ४ और ९ जोड़ने होते थे, तब उसे इसप्रकार लिखा जाता था : १ यु भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंमें पूर्णांक लिखनेकी यह पद्धति थी कि अंकके नीचे १ लिख दिया जाता था किन्तु दोनोंके बीच में भाग रेखा नहीं लगाई जाती थी। -४०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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