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________________ नगरके संस्कृत विद्यालयोंमें स्याद्वाद विद्यालय अपना एक स्थान रखता था । यहाँ काशीके सुप्रसिद्ध और नैयायिक पण्डित अंबादासजी शास्त्री, न्याय और साहित्याचार्य पण्डित मुकुन्दजी शास्त्री काव्य और साहित्यका अध्यापन करते थे। पण्डित हीरालालजी शास्त्री और बादमें पण्डित फूलचन्दजी शास्त्री धर्माध्यापकके पदपर प्रतिष्ठित थे। कुछ समय बाद पण्डित कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीकी धर्माध्यापकके पदपर निय क्ति हई । मेरे हर्षका ठिकाना न था। जो व्यक्ति मोरेनामें मेरे साथ उच्च कक्षाका एक विद्यार्थी रह चुका है और जिसे मैं अपने अन्तर्मनमें आदर्शरूप मानकर चलता आया था, वह मेरा धर्मदीक्षक होगा, यह विचार कुछ कम कौतूहलजनक न था। पण्डित कैलाशचन्द्रजीसे मुझे गोम्मटसार, तत्त्वार्थराजवातिक आदि ग्रन्थोंके अध्ययन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। मैंने पाया कि वे अपने विषयके प्रकाण्ड पण्डित हैं, अध्यापन निर्वाधगतिसे आगे बढ़ता जाता है । अध्यापन भी एक कला है । और यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि अध्यापनकी कलामें वे श्रोताको प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ते । अध्यापक होनेके साथ सहृदयता भी उनमें कूट-कूट भरी है। वस्तुतः सहृदय व्यक्ति ही एक सफल अध्यापक बनने योग्य होता है। धीरे-धीरे मैं संस्कृत विद्यासे अंग्रेजी विद्याकी ओर उन्मख होता गया। मैट्रिक पास करके बनारस विश्वविद्यालयमें फर्स्ट इयर साइंसमें नाम लिखा लिया। धीरे-धीरे वहाँके होस्टलमें रहने लगा । यद्यपि पण्डित कैलाशचन्द्रजीका सम्पर्क कम हो गया था, फिर भी उनसे प्राप्त होनेवाली प्रेरणामें कमो न आई । जब कभी कालेजकी फीस भरनेके लिए अथवा होस्टलमे भोजनका खर्चा चुकानेके लिए पैसेकी जरूरत होती, तो पण्डितजी मुटी बाँधे खड़े दिखाई देते । सोचता हूँ यदि इस उदारमना व्यक्तिकी छत्रछाया मुझपर न होती, तो क्या मैं विश्वविद्यालय की अपनी पढ़ाई कर पाता । X १९३२ में बनारस छोड़नेके बाद पण्डितजी का सम्पर्क और घटा, फिर भी बीच-बीचमें उनके स्नेह और ममताके पत्र तो मिलते ही रहे। कितने ही अवसर ऐसे आते, जब वे अंग्रेजी पत्रिकाओंमें प्रकाशित शोध सम्बन्धी लेख मेरे पास भेजकर अपने उपयोगके लिए, उनका अंग्रेजीमें भाषान्तर कराते । इस श्रमका पारिश्रमिक भिजवानेमें वे कभी न चूकते । मेरे बम्बई चले आने पर तो पत्राचार भी शिथिल पड़ गया। बीच-बीच में कभी मेरा बनारस आना होता या उनका बम्बई आना होता, तो दर्शन-स्पर्शन हो जाता । लेकिन क्या कभी इतनी बड़ी भूख एकाध ग्राससे शान्त हो सकती थी ? पिछले दिनों, जर्मनीसे लौटने पर गयामें होनेवाली एक जैन संगोष्ठी में पण्डितजी भी सम्मिलित हुए थे और मैं मी । वर्षोंके अन्तरालके बाद उनसे मिलकर बड़ा हर्ष हुआ। वही सादा लिवास, वही चाल ढाल, बोलचाल और मुस्कराता हुआ खिला चेहरा। मैंने कहा, 'पण्डितजी आप तो तीस वर्षीय युवक जान पड़ते हैं। थोड़ा भी परिवर्तन आपमें मालम नहीं होता। ऐसी कौन-सी सदाबहार बूटीका आप सेवन करते हैं, कुछ हमें भी तो बताइये ।' यह सुनकर पण्डितजीके मुँहसे एक स्वाभाविक हँसी छूट पड़ी। जब-जब पण्डित कैलाशचन्द्रजीसे मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, उनके अलौकिक व्यक्तित्वसे मैं प्रभावित हुआ हूँ। पण्डित होकर भी स्वाभिमानका जीवन उन्होंने जिया है जिससे कभी दूसरोंकी दया पर जीनेका अवसर उन्होंने नहीं आने दिया। ७७ वर्षकी अवस्थामें पदार्पण करने पर भी वे एक सुकुमार -१२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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