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________________ कि आखिर उनके सामने मेरा मुह क्यों नहीं खुला ? बोलना नहीं था, तो कमसे कम सामने आकर अभिवादन तो किया जा सकता था । राजेन्द्रकुमार, मथुरादास, बनवारीलाल आदि और भी अनेक विद्यार्थी जैनसिद्धांत पाठशाला में पढ़ते थे । परवार जातिके छात्रोंकी संख्या अधिक थी । दक्षिणी विद्यार्थियों में के० भुजवली जीका नामोल्लेख किया जा सकता है जिन्होंने आरामें रहकर शोधकार्य किया है और आजकल मूढविद्री में रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं । दक्षिणवासी शाकाहाल उन दिनों पाठशालाके सुपरिन्टेन्डेन्ट पद पर कार्य करते थे। एक दिन वे अध्ययन कक्ष में किसी से बातचीत कर रहे थे कि इतने में मैं वहाँ पहुँच गया। उन्होंने मेरी भर्त्सना करते हुए चहाँसे तुरन्त चले जानेका आदेश दिया। मैंने जानेसे इंकार कर दिया। बस, इतनेमें वे अपने कमरेमें से उठकर अपनी पैंत लाये और मुझे ऐसे जोरसे लगाई कि मेरे सिरमेंसे सूनकी धारा बह निकली। अस्पतालमें जाकर टाँके लगवाने पड़े । हस्तिनापुर के जैन गुरुकुलकी भाँति मोरेना की जैन सिद्धान्त पाठशाला की स्थिति भी दिनोंदिन बिगड़ती गई । पण्डित माणिकचन्द्रजी पण्डित देवकीनन्दनजी और आगे चलकर पण्डित बंशीधरजी भी संस्था छोड़कर चले गये और वरैयाजी द्वारा अत्यन्त लगनके साथ स्थापित की हुई यह संस्था अनाथ हो गई । X X X अब काशीका स्याद्वाद विद्यालय ही ऐसा बचा था जहाँ निःशुल्क शिक्षा प्राप्त कर उच्च विद्याध्ययन किया जा सकता था । लेकिन काशी मेरे घरसे दूर जगह थी । काशीके बारेमें बहुत-सी बातें सुन रक्खी थीं, वहाँके पण्डे बहुत हैरान करते हैं, वहांकी गलियाँ बहुत टेढ़ी-मेढ़ी हैं कि एक बार प्रवेश करने पर आदमीका पता ही नहीं चलता कि किधर गया और वहाँ जादूगर रहते हैं ओ इन्सानको तोता बनाकर छोड़ देते हैं। गाँवके रहनेवाले १६-१७ वर्षके एक अबोध बालकके मनपर इस प्रकारकी बातोंका असर होना स्वाभाविक था। फिर सबसे बड़ी समस्या थी कि इतने बड़े विद्यालय में बिना सिफारिशके प्रवेश कैसे पाया जाये ? ऐसे मौकों पर मेरे जेष्ठ भ्राताने अपनी आशुबुद्धि और कर्मठताका परिचय देकर हमेशा मुझे आगे बढ़ाया है। सहारनपुर के लालाओंसे उनका परिचय था। मुझे लेकर वे सहारनपुर पहुँचे । पता लगा कि स्याद्वाद विद्यालय के अधिष्ठाता बाबू सुमतिलाल जी उन दिनों लाला जम्बूप्रसाद जी की कोठीमें रहते थे। जम्बू प्रसादजी बड़े उदार मना धार्मिक विचारोंके व्यक्ति थे जो यथाशक्ति किसीको अपने दरवाजेसे निराश नहीं जाने देते थे। भाई साहबने विनम्रभावसे मेरे प्रवेश पाने की समस्या उनके समक्ष प्रस्तुत की। उन्होंने फौरन हो बाबू सुमतिलालजीको बुलाकर उनसे मुझे एक पत्र स्वाहाद विद्यालयके सुपरिटेन्डेन्टके नाम भिजवा दिया और बिना फार्म आदि भरे मेरा प्रवेश पक्का हो गया । काशी अनन्त सम्भावनाओं का द्वार सिद्ध हुआ । विद्यालयसे सटकर बहनेवाली गंगा बड़ी प्रेरणादायक सिद्ध हुई । विद्यालय के एक जेठे विद्यार्थीको पावभर अंगूरोंकी दत्रिणा देकर मैंने उसे अपना गुरु बनाया और गुरुजीने मुझे बहुत जल्दी तैरना सिखा दिया। गर्मी के दिनोंमें पड़ीकी सुईकी ओर नजर रहती और चारकी टनटन होते ही अपना लंगोट उठाकर गंगा किनारे पहुँच जाते । विद्यार्थियोंके लिए यहाँ कितने सदावरत खुले थे जहाँ मुफ्त में भरपेट भोजन कर विद्याभ्यास करनेकी सुविधा थी । एक धोती और शरीरके ऊपरी हिस्सेको ढँकनेके लिए एक बनारसी अंगोछा - यही उनका परिधान था । विद्यार्थी धाराप्रवाह संस्कृत में बातचीत करते और अवकाशके दिनोंमें दुर्गाकुण्ड आदि स्थानोंपर होनेवाले शास्त्रार्थो में जूझते दिखाई पड़ते । कहनेकी आवश्यकता नहीं कि इन सब अभिनव परिस्थितियोंने मुझे पर्याप्तरूपसे अभिभूत किया । - ११ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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