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________________ जैनधर्म पर अपनी निष्ठा कम नहीं की । उसीसे आगे चलकर उसका पातिव्रत्य सिद्ध हो गया और उसे कुटुम्बमें, समाज में आदरणीय स्थान मिला । मातृत्वका महत्व स्त्री के सभी गुणोंमें मातृत्वको बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसी गुणसे उसे समाज में आदर्श गुरु माना गया है। आचार्य मानतुंगके अनुसार संसारकी सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रोंको जन्म देती हैं लेकिन भगवानके समान अद्वितीय पुत्रको जन्म देने वाली माता तो अद्वितीय ही है। सूर्य की किरणोंकी अलग-अलग दिशायें होती हैं लेकिन सूर्यका जन्म एक ही दिशामें - पूर्व में ही होता है । आचार्यका यह श्लोक मातृत्वके श्रेष्ठत्वका विश्लेषण करने वाला है । माँ अपने पुत्रको जन्म देने के बाद उसका पालन-पोषण और संरक्षण भी करती है । हृदयमें पैदा होने वाले वात्सल्यकी भावनासे माता कठिन प्रसव वेदना भी सुसह्य मानती है । इसी कारण मानव जीवनमें, समाजमें और संसार रचनामें नारीको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । संसारके अनेक प्रसिद्ध नेताओंका व्यक्तित्व बनानेका कार्य उनकी माताओंने किया है । नेपोलियन, हिटलर, छत्रपति शिवाजी और महात्मा गान्धीके असमान्य जीवनके लिये उनकी माताओंका योगदान ही कारण है । संसारके सर्वस्व त्याग, समस्त प्रेम, सर्व श्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता 'माँ' नामक अक्षरमें भरी है । मातृत्व के इस एकमेवाद्वितीय विशेषत्वसे ही समाजने नारीको प्रथम वन्दनीय माना है । धर्मनिष्ठ नारी कर्तव्यनिष्ठा के साथ ही धर्मनिष्ठामें भी जैन नारियाँ प्रसिद्ध हैं । जैन नारीने जैनधर्मतत्वके अनुसार सिर्फ आत्मोद्धार ही नहीं किया, अपितु अपने पतिको भी जैन धर्मका उपासक बनाया है और अपने लड़के लड़कियोंको सुसंस्कारित ओर आदर्श बनानेका यत्न किया है । लिच्छिविवंशीय राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने अपने पति मगधदेशके नरेश श्रेणिकको जैनधर्मका उपासक बनाया उसके अभयकुमार और वारिषेण नामक दोनों पुत्रोंने सांसारिक सुख और वैभवका त्यागकर आत्मसाधनाके लिये अनेक व्रतोंका पालन किया। कर्नाटकके चालुक्य नरेशको उसकी पत्नी जाकलदेवीने जैनधर्मानुयायी बनाया और उसके प्रसारके लिये प्रेरणा दी । अनेक शिलालेखों में जैन नारीके द्वारा जिनमन्दिर बनानेकी जानकारी मिलती है । इन मन्दिरोंके पूजोत्सव आदिका प्रबन्ध भी उनके द्वारा किया जाता था । कलिंगाधिपति राजा खारवेलकी रानीने कुमारी पर्वत पर जैन गुफा बनाई । सीरेकी राजाकी पत्नीने अपने पतिका रोग हटानेके लिये और शरीर स्वस्थ होनेके लिये अपनी नथका मोती बेचकर जिनमन्दिर और तालाबकी रचना की। आज भी यह मन्दिर 'मुतनकेरे' नामसे प्रसिद्ध है । आहवमल्ल राजाके सेनापति मल्लमकी कन्या अन्तिमब्बे जैनधर्म पर श्रद्वा रखने वाली और दानशूर थी । उसे ग्रन्थोंमें दानचिन्तामणि कहकर उल्लिखित किया गया है। उसने चांदी और सोनेकी हजारों जिनमूर्तियां बनवाईं ! लाखों रुपयोंका दान दिया । जबलपुरमें पिसनहारीकी मढ़िया नामक जैन मन्दिर है । एक जैन नारीने आटा पीसकर जो रकम कमाई, उससे यह मन्दिर बना है। कितना असामान्य, अनोखा आदर्श है यह । मथुराके शिलालेखसे पता चलता है कि जैन नारियोंने ही जैनमन्दिर और कलात्मक शिल्प बनाने में नेतृत्व किया था । अनेक जैन नारियोंने आर्यिकाका व्रत लिया, कठोर तपचर्या की, मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका यत्न किया । जम्बुस्वामी के दीक्षा लेने के बाद उनकी पत्नीने भी दीक्षा ली। वैशालीके चेटक राजाकी ३८ Jain Education International - २९७ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012048
Book TitleKailashchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Jain
PublisherKailashchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Rewa MP
Publication Year1980
Total Pages630
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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